अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - भुरिग्बृहती
सूक्तम् - शर्म सूक्त
मि॒त्रः पृ॑थि॒व्योद॑क्राम॒त्तां पुरं॒ प्र ण॑यामि वः। तामा वि॑शत॒ तां प्र वि॑शत॒ सा वः॒ शर्म॑ च॒ वर्म॑ च यच्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रः।पृ॒थि॒व्याः। उत्। अ॒क्रा॒म॒त्। ताम्। पुर॑म्। प्र। न॒या॒मि॒। वः॒। ताम्। आ। वि॒श॒त॒। ताम्। प्र। वि॒श॒त॒। सा। वः॒। शर्म॑। च॒। वर्म॑। च॒। य॒च्छ॒तु॒ ॥१९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रः पृथिव्योदक्रामत्तां पुरं प्र णयामि वः। तामा विशत तां प्र विशत सा वः शर्म च वर्म च यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठमित्रः।पृथिव्याः। उत्। अक्रामत्। ताम्। पुरम्। प्र। नयामि। वः। ताम्। आ। विशत। ताम्। प्र। विशत। सा। वः। शर्म। च। वर्म। च। यच्छतु ॥१९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
विषय - रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ -
(मित्रः) मित्र [हितकारी मनुष्य] (पृथिव्या) पृथिवी के साथ (उत् अक्रामत्) ऊँचा चढ़ा है, (ताम्) उस (पुरम्) अग्रगामिनी शक्ति [वा दुर्गरूप परमेश्वर] की ओर (वः) तुम्हें (प्र) आगे (नयामि) लिये चलता हूँ। (ताम्) उस [शक्ति] में (आ विशत) तुम घुस जाओ, (ताम्) उसमें (प्र विशत) तुम भीतर जाओ, (सा) वह [शक्ति] (वः) तुम्हें (शर्म) सुख (च च) और (वर्म) कवच [रक्षा साधन] (यच्छन्तु) देवे ॥१॥
भावार्थ - जो मनुष्य रत्नों के धारण करनेवाली पृथिवी का मान करते और परमात्मा में पूर्ण विश्वास रखते हैं, वे ही सुरक्षित रहकर उन्नति करते हैं ॥१॥
टिप्पणी -
१−(मित्रः) ञिमिदा स्नेहे-क्त्र। स्नेही पुरुषः (पृथिव्या) भूमिराज्यादिना सह (उदक्रामत्) उत्क्रान्तवान्। उच्चपदं प्राप्तवान् (ताम्) प्रसिद्धाम् (पुरम्) पुर अग्रगमने-क्विप्। अग्रगामिनीं दुर्गरूपां वा शक्तिं परमात्मानं प्रति (प्र) अग्रे (नयामि) गमयामि (वः) युष्मान् (ताम्) शक्तिम् (आ विशत) आभिमुख्येन मध्ये गच्छत (ताम्) (प्र विशत) प्रवेशेन प्राप्नुत (सा) शक्तिः (वः) युष्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (च च) समुच्चये (वर्म) कवचम् रक्षासाधनम् (यच्छतु) ददातु ॥