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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    6

    वसोः॑ प॒वित्र॑मसि॒ द्यौर॑सि पृथि॒व्यसि मात॒रिश्व॑नो घ॒र्मोऽसि वि॒श्वधा॑ऽअसि। प॒र॒मेण॒ धाम्ना॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। मा॒त॒रिश्व॑नः। घ॒र्मः। असि॒। वि॒श्वधा॒ इति॑ वि॒श्वधाः॑। अ॒सि॒। प॒र॒मेण॑। धाम्ना॑। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त् ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मा सि विश्वधाऽअसि। परमेण धाम्ना दृँहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिह्वार्षीत्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वसोः। पवित्रं। असि। द्यौः। असि। पृथिवी। असि। मातरिश्वनः। घर्मः। असि। विश्वधा इति विश्वधाः। असि। परमेण। धाम्ना। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 2
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    भाषार्थ -

    हे विद्वान् मनुष्य (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) पवित्र करने वाला (असि) है, अर्थात् पवित्र करने वाला कर्म है, (द्यौः) सूर्य की किरणों में स्थिर और विज्ञजन प्रकाश का हेतु (असि) है, (पृथिवी) वायु के साथ देश-देशान्तरों में फैलने वाला (असि) है, तथा--(मातरिश्वनः) वायु का (धर्मः) शोधक (असि) है अर्थात्-अन्तरिक्ष में गति करने से वायु  का नाम मातरिश्वा है, उस वायु का (धर्मः) अग्निताप से शोधक है, (विश्वधा) संसार के सुख को धारणकरने वाला (असि) है एवं विश्व का धारक है, (परमेण) उत्तम सुख से युक्त (धाम्ना) लोक के साथ (दृंहस्व) बढ़ता है।

     उस यज्ञ का (मा ह्वाः) त्याग मत कर तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ का स्वामी, यज्ञकर्ता= यमजमान भी उसे (माह्वार्षीत्) न छोड़े। धात्वर्थ के कारण ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ तीन प्रकार का होता हैः--

    १-- विद्या, ज्ञान और धर्माचरण से वृद्ध विद्वानों का इस लोक और परलोक के सुख की सिद्धि के लिए सत्कार करनाः २-- अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोधज्ञान की संगति से शिल्प विद्या का प्रत्यक्ष करना एवं नित्य विद्वानों का संग करना;  ३-- शुभ विद्या, सुख धर्मादि गुणों का नित्य दान करना॥१। २॥

    भावार्थ -

    मनुष्यों को विद्या और क्रिया के द्वारा विधिपूर्वक किये यज्ञ से पवित्रता, प्रकाश, पृथिवी, राज्य, वायु अर्थात् प्राण के तुल्य राज्यनीति, प्रताप, सबकी रक्षा-- इस लोक और परलोक में परम सुख की वृद्धि, परस्पर सरलता से वर्ताव ओर कुटिलता-त्याग की प्राप्ति होती है। इसलिए सब मनुष्यों को परोपकार के लिए विद्या और पुरुषार्थ से प्रीतिपूर्वक यज्ञ नित्य करना चाहिये॥१।२॥

    भाष्यसार -

    १. यज्ञ--  सबकोपवित्र करने वाला, सूर्य की किरणों में स्थित होने वाला, वायु के साथ विस्तार को प्राप्त होने वाला, वायु को शुद्ध करने वाला, विश्व के सब सुखों को धारण करने वाला यज्ञ सबसे श्रेष्ठ कर्म है।

    २. ईश्वर-आज्ञा-- हे विद्वान मनुष्य! तू इस सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कर्म को कभी मत छोड़।

    ३. यज्ञपद की विशेष व्याख्या-- महर्षि ने यहां यज्ञपति शब्द की व्याख्या में धातु-अर्थ के आधार पर यज्ञ शब्द की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है। यज्ञ शब्द यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषुधातु से सिद्ध होता है। इस धातु के देवपूजा, संगतिकरण और दान ये तीन अर्थ हैं। अब क्रमशः इनकी महर्षि की व्याख्या देखिये-(क) देवपूजा-- विद्या, धर्म और धर्माचरणा की दृष्टि से वृद्ध विद्वानों का इस लोक और परलोक के सुख की सिद्धि के लिए सत्कार करना। (ख) संगतिकरण-- अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोध-ज्ञान की संगति से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना एवं नित्य विद्वानों का संग करना। (ग) दान-- शुभ विद्या, सुख-धर्मादि गुणों का नित्य का दान करना।

    ४. यज्- यजुर्वेद का यजुःपद भी इसी ‘यज्’ धातु से बनता है। जैसे महर्षि इसी यजुर्वेदभाष्य के प्रारम्भ में लिखते हैं - ‘‘यजुर्भिजन्तीत्युक्तप्रामाण्यात्-येन मनुष्यों ईश्वर धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति सर्वचेष्टासांगत्यं शिल्पविद्यासंगतिकरणां, शुभविद्यागुणदान  यथायोग्तया सर्वोपकारे शुभे व्यवहारे विद्वत्सु च द्रव्यादिव्ययं कुर्वन्ति तद्यजुः’’ जिससे मनुष्य--(देवपूजा) ईश्वर और धार्मिक विद्वानों की पूजा करते हैं, (संगतिकरण) सब क्रियाओं की संगति तथा शिल्पविद्या का संग करते हैं, (दान) विद्यादि गुणों का दान, यथायोग्य सबके उपकार तथा शुभ व्यवहार में और विद्वानों पर द्रव्य आदि का व्यय करते हैं उसे यजुःकहते हैं। यहाँ महर्षि की ‘यजु’ शब्द की व्याख्या में भी यज् धातु का देव-पूजा, संगतिकरण और दान अर्थ स्पष्ट है। अतः यजुर्वेद का प्रतिपाद्य का विषय भी यही है॥२॥

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। स्वराडार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥

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