यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 10
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
7
मयी॒दमिन्द्र॑ऽइन्द्रि॒यं द॑धात्व॒स्मान् रायो॑ म॒घवा॑नः सचन्ताम्। अ॒स्माक॑ꣳ सन्त्वा॒शिषः॑ स॒त्या नः॑ सन्त्वा॒शिष॒ऽउप॑हूता पृथि॒वी मा॒तोप॒ मां पृ॑थि॒वी मा॒ता ह्व॑यताम॒ग्निराग्नी॑ध्रा॒त् स्वाहा॑॥१०॥
स्वर सहित पद पाठमयि॑। इ॒दम्। इन्द्रः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। द॒धा॒तु। अ॒स्मान्। रायः॑। म॒घवा॒न॒ इति॑ म॒घऽवा॑नः। स॒च॒न्ता॒म्। अ॒स्माक॑म्। स॒न्तु॒। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। स॒त्याः। नः॒। स॒न्तु॒। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। उप॑हू॒तेत्युप॑ऽहूता। पृ॒थि॒वी। मा॒ता। उप॑। माम्। पृ॒थि॒वी। मा॒ता। ह्व॒य॒ता॒म्। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रात्। स्वाहा॑ ॥१०॥
स्वर रहित मन्त्र
मयीदमिन्द्रऽइन्द्रियन्दधात्वस्मान्रायो मघवानः सचन्ताम् । अस्माकँ सन्त्वाशिषः सत्या नः सन्त्वाशिषः उपहूता पृथिवी मातोप माम्पृथिवी माता ह्वयतामग्निराग्नीध्रात्स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
मयि। इदम्। इन्द्रः। इन्द्रियम्। दधातु। अस्मान्। रायः। मघवान इति मघऽवानः। सचन्ताम्। अस्माकम्। सन्तु। आशिष इत्याऽशिषः। सत्याः। नः। सन्तु। आशिष इत्याऽशिषः। उपहूतेत्युपऽहूता। पृथिवी। माता। उप। माम्। पृथिवी। माता। ह्वयताम्। अग्निः। आग्नीध्रात्। स्वाहा॥१०॥
भाषार्थ -
--(इन्द्रः) परमेश्वर (मयि) मुझ में (इदम्) इस (इन्द्रियम्) इन्द्रिय अर्थात् इन्द्र का जो ऐश्वर्य-प्राप्ति का चिह्न है, इन्द्र=परमेश्वर ने जो देखा है, इन्द्र ने जो प्रकाशित किया है, इन्द्र अर्थात् विद्या-सम्पन्न जीव ने जो प्रेमपूर्वक सेवन किया है, इन्द्र अर्थात् परमेश्वर ने जो प्रेमपूर्वक सेवन किया है, इन्द्र अर्थात् परमेश्वर ने जो सब सुख और ज्ञान का साधन प्रदान किया है, उस इन्द्रिय (मन) को और (रायः) विद्या, सोना तथा चक्रवर्त्ति राज्य आदि धनों को (दधातु) सदा धारण करावें।
उस परमेश्वर की कृपा और अपने पुरुषार्थ से जैसे हम लोग (मघवानः) अत्यन्त ऐश्वर्य-सम्पन्न होवें, वैसे (अस्मान्) हम मनुष्यों को (रायः) विद्या, सोना, तथा चक्रवर्त्ति राज्य आदि धनों को (सचन्ताम्) प्राप्त होवें।
और इस प्रकार (अस्माकम्) हम परोपकारी, धार्मिक मनुष्यों की [नः] विद्वान् राज्य सेवकों की (आशिषः) कामनाएं न्यायेच्छा से युक्त क्रियायें (सत्याः) सिद्ध (सन्तु) होवें।
इसी प्रकार (माता) मान प्राप्ति की हेतु तथा धर्म, अर्थ,काम, मोक्ष की सिद्धि से मान देने वाला (पृथिवी) अत्यन्त सुखकारी जो भूमि और विद्या हैं कि (उपहूता) जिसे लोग राज्य-सुख के लिए सेवन करते हैं, उसका (माम्) मुझ सुख के अभिलाषी धार्मिक जन के लिए (उप+ह्वयताम्) उपदेश कीजिए।
तथा मेरे द्वारा उपासित यह (अग्निः) ईश्वर (आग्नीध्रात्) अग्नि जिसमें प्रदीप्त की जाती है, उसका आश्रय होने से अत्यन्त इष्टकारी होता हुआ (नः) हमें सुख प्रदान करता है। इसी प्रकार विधि-पूर्वक किया हुआ हवन अत्यन्त इष्टकारक होता है, (स्वाहा) ऐसा वेदवाणी होम करने का सब मनुष्यों को उपदेश करती है॥२।१०॥
भावार्थ -
जो मनुष्य पुरुषार्थी और ईश्वर के उपासक हैं वे ही स्वच्छ मन, श्रेष्ठ=उत्तम धन और कामना की सिद्धि को प्राप्त होते हैं; दूसरे नहीं।
सबके मान प्राप्ति के हेतु भूमि और विद्या पृथिवी शब्द से यहां प्रकाशित किए हैं। सब इनसे सदा उपकार करें यह ईश्वर ने उस मन्त्र के द्वारा उपदेश किया है।
भाष्यसार -
यज्ञ का फल--यज्ञ से ईश्वर स्वच्छमन, विद्या, सुवर्ण, चक्रवर्त्ति राज्य, आदि धन प्रदान करता है। यज्ञ से परोपकारी धार्मिकजनों की कामनाओं की सिद्धि होती है। यज्ञ से मान प्राप्ति के हेतु भूमि और विद्या की प्राप्ति होती है। यज्ञ से ईश्वर सब अभीष्ट सुख प्रदान करता है। यह वेद का उपदेश है।
पृथिवी--यहाँ पृथिवी शब्द से भूमि और विद्या अर्थ ग्रहण किए हैं। भूमि को माता इसलिए कहा है कि मान प्राप्ति का हेतु है। विद्या को भी माता इसलिए कहा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि से मान प्रदान करने वाली है एवं अत्यन्त सुख देने वाली है।
अन्यत्र व्याख्यात -
महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका (प्रार्थनायाचनासमर्पण विषय) में इस प्रकार की हैः—
‘‘(मयीदमिन्द्र॰) हे उत्तम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप अपनी कृपा से श्रोत्र आदि उत्तम इन्द्रिय और श्रेष्ठ स्वभाव वाले मन को मुझ में स्थिर कीजिये अर्थात् हमको उत्तम गुण और पदार्थों के सहित सब दिन के लिए कीजिये (अस्मान् रा॰) हे परम धन वाले ईश्वर! आप उत्तम राज्य आदि धन वाले हमको सदा के लिए कीजिये (सचन्तां॰) मनुष्यों के लिये ईश्वर की यह आज्ञा है कि हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में सब प्रकार से उत्तम गुणों का ग्रहण और उत्तम ही कर्मों का सेवन सदा करते रहो (अस्मार्क स॰) हे भगवन्! आप की कृपा से हम लोगों की सब इच्छा सर्वदा सत्य ही होती रहे। तथा सदा सत्य ही कर्म करने की इच्छा हो किन्तु चक्रवर्ती राज्य आदि बड़े-बड़े काम करने की योग्यता हमारे बीच में स्थिर कीजिए।’’ आर्याभिविनय (२।५१) में इस मन्त्र की व्याख्या इस प्रकार हैः—
- ‘‘हे इन्द्र=परमैश्वर्यवान् ईश्वर! ‘मयि’ मुझ में विज्ञानादि शुद्ध इन्द्रिय ‘रायः’ उत्तम धन को ‘मघवानः’ परम धनवान् आप ‘सचन्ताम्’ सद्यः प्राप्त करो। हे सर्वकाम पूर्ण करने वाले ईश्वर! आपकी कृपा से हमारी आशा सत्य ही होनी चाहिए (पुनरुक्त अत्यन्त प्रेम और त्वरा द्योतनार्थ है)। हे भगवन्! हम लोगों की इच्छा आप शीघ्र ही सत्य कीजिए जिससे हमारी न्याययुक्त इच्छा के सिद्ध होने से हम लोग परमानन्द में सदा रहें’’॥२।१०॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः।इन्द्रो=ईश्वरः॥ भुरिग्ब्राह्मीपंक्तिः। पञ्चमः स्वरः॥
अथ तज्जन्यं फलमुपद्दिश्यते॥
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