यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 3
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निः सर्वस्य
छन्दः - भूरिक् आर्ची त्रिष्टुप्,भूरिक् आर्ची पङ्क्ति,पङ्क्ति,
स्वरः - धैवतः, पञ्चम
12
ग॒न्ध॒र्वस्त्वा॑ वि॒श्वाव॑सुः॒ परि॑दधातु॒ विश्व॒स्यारि॑ष्ट्यै॒ यज॑मानस्य परि॒धिर॑स्य॒ग्निरि॒डऽई॑डि॒तः। इन्द्र॑स्य बा॒हुर॑सि॒ दक्षि॑णो॒ विश्व॒स्यारि॑ष्ट्यै॒ यज॑मानस्य परि॒धिर॑स्य॒ग्निरि॒डऽई॑डि॒तः। मि॒त्रावरु॑णौ त्वोत्तर॒तः परि॑धत्तां ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा॒ विश्व॒स्यारि॑ष्ट्यै॒ यज॑मानस्य परि॒धिर॑स्य॒ग्निरि॒डऽई॑डि॒तः॥३॥
स्वर सहित पद पाठग॒न्ध॒र्वः। त्वा॒। वि॒श्वाव॑सुः॒। वि॒श्व॑वसु॒रिति॑ वि॒श्वऽव॑सुः। परि॑। द॒धा॒तु॒। विश्व॑स्य। अरि॑ष्ट्यै। यज॑मानस्य। प॒रि॒धिरिति॑ परि॒ऽधिः। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। इ॒डः। ई॒डि॒तः। इन्द्र॑स्य। बा॒हुः। अ॒सि॒। दक्षि॑णः। विश्व॑स्य। अरि॑ष्ट्यै। यज॑मानस्य। प॒रि॒धिरिति॑ परि॒ऽधिः। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। इ॒डः। ई॒डि॒तः। मि॒त्रावरु॑णौ। त्वा॒। उ॒त्त॒र॒तः। परि॑। ध॒त्ता॒म्। ध्रु॒वेण॑। धर्म॑णा। विश्व॑स्य। अरि॑ष्ट्यै। यज॑मानस्य। प॒रि॒धिरिति॑ परि॒ऽधिः। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। इ॒डः। ई॒डि॒तः ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
गन्धर्वस्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्नडऽईडितः । इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणो विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ईडितः । मित्रावरुणौ त्वोत्तरतः परि धत्तान्धु्रवेण धर्मणा विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिडऽईडितः ॥
स्वर रहित पद पाठ
गन्धर्वः। त्वा। विश्वावसुः। विश्ववसुरिति विश्वऽवसुः। परि। दधातु। विश्वस्य। अरिष्ट्यै। यजमानस्य। परिधिरिति परिऽधिः। असि। अग्निः। इडः। ईडितः। इन्द्रस्य। बाहुः। असि। दक्षिणः। विश्वस्य। अरिष्ट्यै। यजमानस्य। परिधिरिति परिऽधिः। असि। अग्निः। इडः। ईडितः। मित्रावरुणौ। त्वा। उत्तरतः। परि। धत्ताम्। ध्रुवेण। धर्मणा। विश्वस्य। अरिष्ट्यै। यजमानस्य। परिधिरिति परिऽधिः। असि। अग्निः। इडः। ईडितः॥३॥
विषय - उस यह यज्ञ अग्नि आदि पदार्थों से धारण किया जाता है, यह उपदेश किया है।
भाषार्थ -
विद्वानों ने जो यह (गन्धर्वः ) पृथिवी वा वाणी को धारण करने वाला सूर्यलोक है, और (विश्वावसुः) जो विश्व को बसाने वाला है तथा (इडः) स्तुति करने योग्य (अग्निः) जिस अग्नि की (ईडितः) प्रशंसा की (असि) है, वह (विश्वस्य) सम्पूर्ण जगत् और (यजमानस्य) यज्ञ करने वाले व्यक्ति के (अरिष्ट्यै) दुःख-निवारण से सुख प्रदान कर यज्ञ को धारण करता है इसलिए उस अग्नि को विद्या की सिद्धि के लिए मनुष्य यथावत् (परिदधातु) सब तरह से धारण करें।
विद्वान् के द्वारा जो वायु (इन्द्रस्य) सूर्य का (बाहुः) बल बढ़ाने वाला, (दक्षिणः) वर्षा की प्राप्ति कराने वाला (परिधिः) सब ओर सेसब वस्तुओं का धारक (इडः) और जो स्तुति करने योग्य (ईडितः) तथा प्रशंसा किया हुआ (अग्निः) विद्युत् (असि) है, वह वायु और विद्युत् अच्छी प्रकार प्रयोग में लाया हुआ (यजमानस्य) शिल्पविद्या के अभिलाषी (विश्वस्य) तथा प्राणिमात्र के (अरिष्ट्यै) सुख के लिए (असि) होता है। और--
ब्रह्मांड में स्थित गमनागमन स्वभाव वाले जो (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान हैं, वे (ध्रुवेण) निश्चल तथा (धर्मणा) अपनी स्वाभाविक धारण शक्ति से (उत्तरतः) उत्तर-काल में (विश्वस्य) चराचर जगत् तथा (यजमानस्य) सब के मित्र विद्वान् के लिए (अरिष्ट्यै) सुख-कारक [त्वा] उस यज्ञ को (परिधत्ताम्) सब ओर से धारण करते हैं। जो विद्वानों के द्वारा (इडः) विद्या-प्राप्ति के लिए स्तुति करने योग्य (परिधिः) विद्या का परिधान तथा (ईडितः) विद्याभिलाषी जनों से अच्छे प्रकार पूजित (अग्निः) प्रत्यक्ष भौतिक बिजली (असि) है, वह भी इस यज्ञ को सब ओर से धारण करता है। इस बिजली का भी मनुष्य गुण-ज्ञान-पूर्वक उपयोग करे॥२।३॥
भावार्थ -
– ईश्वर ने जो सूर्य, विद्युत् और प्रत्यक्ष भौतिक अग्नि रूप तीन प्रकार का अग्नि बनाया है, वह मनुष्य से विद्या के द्वारा अच्छी तरह उपयोग में लाया हुआ बहुत से कार्यों को सिद्ध करता है॥२।३॥
भाष्यसार -
१. सूर्य--पृथिवी को धारण करता है एवं वाणी को धारण कराता है, संसार के वास का हेतु है, सब संसार के तथा यज्ञ करने वाले व्यक्ति के दुःखों का निवारण करके सुखों को देने वाला है। विद्वानों से स्तुति करने योग्य है अर्थात् विद्वान् लोग सूर्य के गुणों को जानें तथा विद्या की सिद्धि के लिए उन्हें ग्रहण करें।
२. वायु-- सूर्य का बल है, वृष्टि को प्राप्त कराने वाला है, सब वस्तुओं का धारक है, दाह प्रकाश आदि गुणों को बढ़ाने वाला है, शिल्प विद्या के साधक तथा सब प्राणियों के लिए सुखदायक है। विद्वानों से स्तुति करने योग्य है अर्थात् विद्वान् लोग वायु के गुणों को जानकार उनका उपयोग करें।
३. प्राण-अपान-- मित्र और वरुण अर्थात् प्राण और अपान वायु के ही भेद हैं, जो ब्रह्मांड में स्थित हैं। जो गमनशील अर्थात् बाहर निकलता है वह प्राण है और जो आगमनशील अर्थात् बाहर से अन्दर आता है वह अपान है। ये स्थिर अपनी स्वाभाविक धारण-शक्ति से चराचर जगत् को सुख देने वाले हैं और यज्ञ को धारण करते हैं।
४. अग्नि (विद्युत्)--सूर्य का बल है,वृष्टि का प्रापक है, सब वस्तुओं को धारण करने वाला है, दाह और प्रकाश आदि गुणों की अधिकता से प्रशंसा के योग्य है, शिल्प विद्या के इच्छुक व्यक्ति तथा सब प्राणियों के लिए सुखकारक है। विद्वान् लोग इसका अच्छी प्रकार से उपयोग करें।
५. अग्नि (भौतिक स्थूल)--अग्नि विद्या की प्राप्ति के लिए विद्वान् लोग इसके गुणों का वर्णन करते हैं।यह अग्नि विद्या की एक अवधि है। जो अग्नि विद्या को प्राप्त करना चाहते हैं वे इसकी कामना करें। यह अग्नि यज्ञ को धारण करता है। मनुष्य इसके गुणों को जान कर इसे ग्रहण करें॥२।३॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः =सूर्यः, विद्युत्, स्थूलाग्निः। आद्यस्य भुरिगार्च्चीत्रिष्टुप्। धैवतः। मध्यभागस्य भुरिगार्च्चीपंक्तिः। अन्यस्य पंक्तिः। उभयत्र पञ्चमः।
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