यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 31
अत्र॑ पितरो मादयध्वं यथाभा॒गमावृ॑षायध्वम्। अमी॑मदन्त पि॒तरो॑ यथाभा॒गमावृ॑षायिषत॥३१॥
स्वर सहित पद पाठअत्र॑। पि॒त॒रः॒। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। वृ॒षा॒य॒ध्व॒म्। वृ॒षा॒य॒ध्व॒मिति॑ वृषऽयध्वम्। अमी॑मदन्त। पि॒तरः॑। य॒था॒भा॒गमिति॑ यथाऽभा॒गम्। आ। अ॒वृ॒षा॒यि॒ष॒त॒ ॥३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्र पितरो मादयध्वँयथाभागमा वृषायध्वम् । अमीमदन्त पितरो यथाभागमा वृषायिषत ॥
स्वर रहित पद पाठ
अत्र। पितरः। मादयध्वम्। यथाभागमिति यथाऽभागम्। आ। वृषायध्वम्। वृषायध्वमिति वृषऽयध्वम्। अमीमदन्त। पितरः। यथाभागमिति यथाऽभागम्। आ। अवृषायिषत॥३१॥
विषय - मनुष्य धर्मात्मा, ज्ञानी, विद्वान् पुरुषों का कैसे सत्कार करें, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे (पितरः!) उत्तम विद्या और शिक्षा के द्वारा पालन करने वाले पितर जनो! तुम सब (अत्र) हमारे इस सत्कार-युक्त व्यवहार अथवा स्थान में (यथाभागम्) यथायोग्य अपने भाग का अतिक्रमण न करके (आ-वृषायघ्वम्) सब ओर आनन्द से सिंचन करने वाले साँड के समान प्रसन्न रहो।
हे (पितरः!) विद्या के दान द्वारा रक्षा करने वाले विद्वानो! (मादयध्वम्) हमें भी प्रसन्न रक्खो। तथा (यथाभागम्) प्रत्येक भाग में (आ-अवृषायिषत) विद्या और धर्म की शिक्षा से सर्वथा सम्मुख हर्ष उत्पन्न करने वाले वाले बनो। और—
(अमीमदन्त्) हमें आनन्दित एवं मुदित करो और विद्या सिखलाओ॥२।३१॥
भावार्थ -
ईश्वर आज्ञा देता है कि माता, पिता आदि तथा विद्वान् अध्यापक, धार्मिक पितर जनों को निकट एवं आते हुए देखकर इस प्रकार कहें और सेवा करें—
हे हमारे पितर-जनो! आपका स्वागत है, आप हमारे देश में आइये, हमारे द्वारा प्रदान किये इन यथायोग्य भोग्य-पदार्थों तथा आसन आदि को स्वीकार करके हमें सुखी करो, जो-जो आपकी आवश्यक तथा प्रिय वस्तु हो उसे लाने के लिये आज्ञा दीजिये।
इस प्रकार यहां हम से सत्कृत हुये आप लोग प्रश्न-उत्तर से हमें स्थूल और सूक्ष्म विद्या तथा धर्मोपदेश से उन्नत करो। आपके सदुपदेश से वृद्धि को प्राप्त हुये हम लोग सदा सत्कार करके तथा अन्यों से भी करवा के सब प्राणियों के सुख तथा विद्या की उन्नति नित्य करें॥२।३१॥
भाष्यसार -
१. पितरों का लक्षण--उत्तम विद्या और शिक्षा के द्वारा पालन करने वाले माता-पिता, विद्यादान से रक्षा करने वाले विद्वान् अध्यापक लोगों को पितर कहते हैं।
२. पितरों का सत्कार--पितर लोगों को अपने घर तथा सत्कार के स्थान सभा आदि में निमन्त्रित करें और उनका स्वागत करें, यथायोग्य खाद्य-पदार्थ तथा आसन आदि से उनकी सेवा करें, जोउनकी प्रिय वस्तु होउसे लाने के लिये उनसे आज्ञा माँगें, आनन्द की वर्षा करने वाले पितर जनों से प्रश्न-उत्तर के द्वारा विद्या और धर्मोपदेश ग्रहण करके सदा हर्ष में रहें। पितर जनों के सत्कार से विद्या और सुख की उन्नति नित्य करते रहें॥
अन्यत्र व्याख्यात -
अन्यत्र व्याख्यात- इस मन्त्र की व्याख्या महर्षि ने ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका (पितृयज्ञविषय) में इस प्रकार की हैः—
(अत्र पितरो मा॰)--हे पितर लोगो! आप यहां हमारे स्थान में आनन्द कीजिये (यथाभागमावृ॰) अपनी इच्छा के अनुकूल भोजन, वस्त्रादि भोग से आनन्दित हूजिये (अमीमदन्त पितरः॰) आप यहां विद्या के प्रचार से सबको आनन्दयुक्त कीजिये। (यथाभागमा॰) हम लोगों से यथायोग्य सत्कार को प्राप्त होकर अपनी प्रसन्नता के प्रकाश से हमको भी आनदिन्त कीजिये’’॥२।३१॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal