यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 9
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - जगती,
स्वरः - निषादः
6
अग्ने॒ वेर्हो॒त्रं वेर्दू॒त्यमव॑तां॒ त्वां द्यावा॑पृथि॒वीऽअव॒ त्वं द्यावा॑पृथि॒वी स्वि॑ष्ट॒कृद्दे॒वेभ्य॒ऽइन्द्र॒ऽआज्ज्ये॑न ह॒विषा॑ भू॒त्स्वाहा॒ सं ज्योति॑षा॒ ज्योतिः॑॥९॥
स्वर सहित पद पाठअग्नेः॑। वेः। हो॒त्रम्। वेः। दू॒त्य᳖म्। अव॑ताम्। त्वाम्। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। अव॑। त्वम्। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वेभ्यः॑। इन्द्रः॑। आज्ये॑न। ह॒विषा॑। भू॒त्। स्वाहा॑। सम्। ज्योति॑षा। ज्योतिः॑ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने वेर्हात्रँवेर्दूत्यम् अवतांन्त्वान्द्यावापृथिवीऽअव त्वन्द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्यऽइन्द्रऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सञ्ज्योतिषा ज्योतिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नेः। वेः। होत्रम्। वेः। दूत्यम्। अवताम्। त्वाम्। द्यावापृथिवीऽइति द्यावाऽपृथिवी। अव। त्वम्। द्यावापृथिवीऽइति द्यावाऽपृथिवी। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। देवेभ्यः। इन्द्रः। आज्येन। हविषा। भूत्। स्वाहा। सम्। ज्योतिषा। ज्योतिः॥९॥
विषय - फिर उस यज्ञ से क्या लाभ होता है, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे [अग्ने!] परमेश्वर अथवा भौतिक अग्ने! जो (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी लोक यज्ञ की (अवताम्) रक्षा करते हैं, उनकी (त्वम्) आप या यह भौतिक अग्नि (वेः) रक्षा करें।
जैसे यह अग्नि (होत्रम्) यज्ञ-कर्म और (दूत्यम्) दूत-कर्म को प्राप्त होकर (द्यावापृथिवी) हमारे के लिए प्राप्त न्याय-प्रकाश और पृथिवी के राज्य की [अव] रक्षा करता है, वैसे हे भगवन्! (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्यसुखों के लिए (स्विष्टकृत्) अच्छे-अच्छे इष्ट कार्यों को सिद्ध करने वाला तू भौतिक-अग्नि हमारी भी (वेः) सदा पालना कर।
जैसे यह=अग्नि (आज्येन) यज्ञ और अग्नि में डालने योग्य घृतादि से (हविषा) शुद्ध हव्य पदार्थ से (ज्योतिषा) तेजस्वी लोकसमूह के साथ (ज्योतिः) प्रकाशमान (स्विष्टकत्) बहुत इष्टकारी (इन्द्रः) सूर्य्य अथवा वायु (द्यावापृथिवी) हमारे लिए प्राप्त न्याय-प्रकाश और पृथिवी के राज्य का रक्षक (भूत्) है, वैसे तू=जगदीश्वर विज्ञान रूप ज्योति के दान से हमारी (सम्+अव) भली-भाँति सदा रक्षा कर, ऐसा (स्वाहा) वेदवाणी ने इस कर्त्तव्य-कर्म का उपदेश किया है॥२।९॥
भावार्थ -
ईश्वर ने मनुष्यों को वेदों में उपदेश किया है--मनुष्य जो-जो अग्नि, सूर्य, वायु, आदि पदार्थों से अग्निहोत्र और दूतकर्म को कर्म का निमित्त जानकर करते हैं, वह कर्म इष्टकारक होता है।
आठवें मन्त्र में जो यज्ञ के साधनों का उपदेश किया है यहाँ नवम मन्त्र में उस यज्ञ के फल को प्रकाशित किया है॥२।९॥
भाष्यसार -
यज्ञ--द्यौ और पृथिवी यज्ञ की रक्षा करती हैं और उनकी ईश्वर रक्षा करता है। यज्ञ में होम करने योग्य शुद्ध घृत आदि पदार्थों से सूर्य और वायु, द्यौ और पृथिवी की रक्षा करते हैं। सूर्य ज्योतिर्मय लोकों का प्रकाशक और स्वयं भी प्रकाशवान् है, जो अत्यन्त इष्टकारी (लाभकारी) है।
ईश्वर प्रार्थना--हे अग्ने=परमेश्वर! आप द्यौ और पृथिवी की रक्षा कीजिए। हे भगवन्! आप विद्वानों वा दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए अत्यन्त इष्टकारी हो। अतः आप हमारी सदा पालना करो। आप सूर्य के समान विज्ञान ज्योति प्रदान करके हमारी रक्षा कीजिये॥
अग्नि--भौतिक अग्नि, अग्निहोत्र और दूतकर्म का साधक है। न्यायप्रकाश और पृथिवीराज्य रक्षक है ॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः=ईश्वरः, भौतिकोऽग्निश्च। जगती। निषादः॥
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