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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 31
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    न तं वि॑दाथ॒ यऽइ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव। नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ऽउक्थ॒शास॑श्चरन्ति॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। तम्। वि॒दा॒थ॒। यः। इ॒मा। ज॒जान॑। अ॒न्यत्। यु॒ष्माक॑म्। अन्तर॑म्। ब॒भू॒व॒। नी॒हा॒रेण॑। प्रावृ॑ताः। जल्प्या॑। च॒। अ॒सु॒तृप॒ इत्य॑सु॒ऽतृपः॑। उ॒क्थ॒शासः॑। उ॒क्थ॒शस॒ इत्यु॑क्थ॒ऽशसः॑। च॒र॒न्ति॒ ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तँविदाथ यऽइमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरम्बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृपऽउक्थशासश्चरन्ति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न। तम्। विदाथ। यः। इमा। जजान। अन्यत्। युष्माकम्। अन्तरम्। बभूव। नीहारेण। प्रावृताः। जल्प्या। च। असुतृप इत्यसुऽतृपः। उक्थशासः। उक्थशस इत्युक्थऽशसः। चरन्ति॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 31
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    भावार्थ - जे पुरुष ब्रह्मचर्य, विद्या, योगाभ्यासरहित आहेत, तसेच धर्माचे अनुष्ठान, सत्संग व पुरुषार्थ करत नाहीत ते अज्ञानरूपी अंधकारात बुडालेले असतात. असे लोक ब्रह्माला जाणू शकत नाहीत. जो ब्रह्म सर्वांचा नियंता, सर्वत्र व्यापक, अंतर्यामी असून जीवांहून भिन्न असतो त्याला पवित्र आत्मेच जाणू शकतात. इतर लोक जाणू शकत नाहीत.

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