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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 47
    ऋषिः - कुत्सीदिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - स्वराडार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अधि॑ नऽ इन्द्रैषां॒ विष्णो॑ सजा॒त्यानाम्। इ॒ता मरु॑तो॒ऽ अश्वि॑ना।तं प्र॒त्नथा॑। अ॒यं वे॒नः। ये दे॒वासः॑। आ न॒ऽइडा॑भिः।विश्वे॑भिः सो॒म्यं मधु॑। ओमा॑सश्चर्षणीधृतः॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि। नः॒। इ॒न्द्र॒। ए॒षा॒म्। विष्णो॒ऽइति॒ विष्णो॑। स॒जा॒त्या᳖ना॒मिति॑ सऽजा॒त्या᳖नाम्। इ॒त। मरु॑तः। अश्वि॑ना ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि नऽइन्द्रेषाँविष्णो सजात्यानाम् । इता मरुतोऽअश्विना । तम्प्रत्नथाऽअयँवेनो ये देवासऽआ नऽइडाभिर्विश्वेभिः सोम्यम्मध्वोसश्चर्षणीधृतः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अधि। नः। इन्द्र। एषाम्। विष्णोऽइति विष्णो। सजात्यानामिति सऽजात्यानाम्। इत। मरुतः। अश्विना॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 47
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान भेदभाव न करता ईश्वराप्रमाणे सर्वांशी समदृष्टीने वागतात, तसेच आपण सर्वांनीही त्याच्याशी तसे वागावे.

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