ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 1
ऋषि: - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पान्त॒मा वो॒ अन्ध॑स॒ इन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत । वि॒श्वा॒साहं॑ श॒तक्र॑तुं॒ मंहि॑ष्ठं चर्षणी॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठपान्त॑म् । आ । वः॒ । अन्ध॑सः । इन्द्र॑म् । अ॒भि । प्र । गा॒य॒त॒ । वि॒श्व॒ऽसह॑म् । श॒तऽक्र॑तुम् । मंहि॑ष्ठम् । च॒र्ष॒णी॒नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पान्तमा वो अन्धस इन्द्रमभि प्र गायत । विश्वासाहं शतक्रतुं मंहिष्ठं चर्षणीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठपान्तम् । आ । वः । अन्धसः । इन्द्रम् । अभि । प्र । गायत । विश्वऽसहम् । शतऽक्रतुम् । मंहिष्ठम् । चर्षणीनाम् ॥ ८.९२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(वः) तुम प्रजा द्वारा (अन्धसः) समर्पित अन्न अथवा कर आदि भोग्य का (आ पान्तम्) सर्वात्मना भोग करते हुए, (विश्वासाहम्) सब शत्रुओं पर विजय पाने वाले (शतक्रतुम्) बहुत प्रकार के ज्ञान के ज्ञाता तथा अनेक कर्म करने वाले (चर्षणीनां मंहिष्ठम्) अपने ऐसे गुणों से समझ-बूझ वाले लोगों के भी अतिशय माननीय (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् राजा की (अभि प्र गायत) प्रकृष्ट स्तुति करो॥१॥
भावार्थ - जो राजा बलवान् है अतएव शत्रुजेता है, वह स्वयं विद्वान् प्रजा की भलाई के अनेक कार्यों को करता है, विवेकशील जनों का भी वह माननीय है और प्रजा उसे कर रूप में भाँति-भाँति के भोग्य प्रदान करती है॥१॥
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