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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 17 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
नू॒नं सा ते॒ प्रति॒ वरं॑ जरि॒त्रे दु॑ही॒यदि॑न्द्र॒ दक्षि॑णा म॒घोनी॑। शिक्षा॑ स्तो॒तृभ्यो॒ माति॑ ध॒ग्भगो॑ नो बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥
स्वर सहित पद पाठनू॒नम् । सा । ते॒ । प्रति॑ । वर॑म् । जरि॒त्रे । दु॒ही॒यत् । इ॒न्द्र॒ । दक्षि॑णा । म॒घोनी॑ । शिक्ष॑ । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । मा । अति॑ । ध॒क् । भगः॑ । नः॒ । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी। शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥
स्वर रहित पद पाठनूनम्। सा। ते। प्रति। वरम्। जरित्रे। दुहीयत्। इन्द्र। दक्षिणा। मघोनी। शिक्ष। स्तोतृऽभ्यः। मा। अति। धक्। भगः। नः। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-माता द्वारा कन्या द्वारा शिक्षा
विचारों के विचार रुपी प्राणों का प्रदान कर सकते हैं मानो देखो यह वाक महर्षि प्रवाहण ने शिलक और दालभ्य के विचारों ने बेटा! देखो यह सिद्ध कर दिया कि माता का पवित्र होना माता का बुद्धिमान होना माता को मानो महान बनाना मानो यह मानो देखो राष्ट्रीयता का पहला चरण कहा जाता है। मेरे प्यारे! देखो जब इन तीनों की वार्ता समाप्त हो गई तो श्वेता मानो सभापति ने और ऋषि महात्मा वशिष्ठ मुनि महाराज ने आगे ऋषियों से कहा कि अपना निर्णय दो जो जो निर्णय देने वाला है उस वाक को प्रगट करो इतने में बेटा! देवर्षि नारद मुनि महाराज उपस्थित हुए और देवर्षि नारद मुनि ने कहा क्या मेरे विचारों में मानो देखो जहां माता का मस्तिष्क ऊंचा किया जाए, माता को विद्यालयों में ब्रह्मचारिणियों को मानो ब्रह्मचर्य से सजातीय बनाया जाए वहां उनकी शिक्षा के लिए मानो कौन होना चाहिए। उनकी शिक्षा के लिए पुरुष होना चाहिए या मेरी पुत्री होनी चाहिए तो नारद मुनि ने यह कहा क्या विद्यालयों में मानो देखो *कन्या विद्यालयों में ब्रह्मचारिणीयों में वानप्रस्थिनी* होनी चाहिए मानो युवा नही होनी चाहिए जिनको पतियों का नवीन सहयोग प्राप्त हुआ हो वह नही होनी जो गृहस्थ को त्याग करके वानप्रस्थ आह्वनीय नाम की अग्नि में जो तपने जा रहे हैं उन मानो वानप्रस्थियों को शिक्षा देनी चाहिए।
तो मेरे पुत्रों! देखो, महाराजा अश्वपति के यहाँ यह बेटा! देखो, सतोयुग के काल में निर्माण हुआ था, एक आचार संहिता बनी कि और आचार सहिंता ये बनी कि गृह को त्याग करके वानप्रस्थ के रूप में दिव्या और देखो, देवतव दोनो ही अपने गृह को त्याग करके मुनिवरों! देखो, वह विद्यालयों में शिक्षा प्रदान करने लगे, और राष्ट्रीयता में क्या, उन्होंने कहा आचार संहिता का निर्माण करना, ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मानो देखो, एक स्थान में देखो, दोनो अध्ययन न करना, वानप्रस्थी देवी बेटा! देखो, ब्रह्मचारीणियों को अध्ययन कराना और ब्रह्मचारियों को भिन्न अध्ययन कराना, वह आचार संहिता, महाराजा अश्वपति के राष्ट्र बेटा! निर्माणित हुई। भगवान मनु ने भी जिस समय राष्ट्र का निर्माण किया था, उस समय मानो देखो, यह आचार संहिता का निर्माण हुआ, आज मैं बेटा! देखो, साहित्य क्या राजाओं के उस क्षेत्र में जाना नही चाहता हूँ, विचार विनिमय केवल मुनिवरों! यह कि हमारे जीवन की एक आचार संहिता पवित्र होनी चाहिए, आचार संहिता का निर्माण होना चाहिए, जिससे बेटा! देखो, हम अपने जीवन में पवित्रता को धारण कर सकें, और मानवीयता का हृास न हो, मानव दर्शन का उत्थान होना चाहिए।
मेरे पुत्रो! देखो, यह चर्चाएँ हो रही थी कि इतने में राजलक्ष्मियाँ आ पहुँची। हमारे यहाँ अयोध्या में यह नियम बना हुआ था कि पुरूषों के न्यायालयों में देखो, मनुष्यों का, पुरूषों का न्याय राजा करते रहते थे और देवियां का न्याय, न्यायालयों में राजलक्ष्मी करती रहती थी।
जैसे मानो प्राण मानो जगत संसार ब्रह्माण्ड की नाभि माना गया है इसी प्रकार यह जो छात्र है राष्ट्र की समाज की नाभि कहलाता है, क्योंकि यह मध्य है, यही तो जीवन का स्रोत्र माना जाता है।
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