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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒दं व॑सो सु॒तमन्ध॒: पिबा॒ सुपू॑र्णमु॒दर॑म् । अना॑भयिन्ररि॒मा ते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । व॒सो॒ इति॑ । सु॒तम् । अन्धः॑ । पिब॑ । सुऽपू॑र्णम् । उ॒दर॑म् । अना॑भयिन् । र॒रि॒म । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं वसो सुतमन्ध: पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । वसो इति । सुतम् । अन्धः । पिब । सुऽपूर्णम् । उदरम् । अनाभयिन् । ररिम । ते ॥ ८.२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वसो) हे बलों से आच्छादन करनेवाले कर्मयोगिन् ! (इदं) वीरों के लिये विभज्यमान इस (सुतं) सिद्ध (अन्धः) आह्लादक रस को (सुपूर्णं, उदरं) उदरपूर्तिपर्य्यन्त (पिबा) पियो (अनाभयिन्) हे निर्भीक वीर ! (ते) तुम्हारे लिये (ररिमा) हम देते हैं ॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र का भाव यह है कि सेना का नेता वीरों के प्रति कथन करता है कि हे कर्मयोगी शूरवीरो ! तुम इस सिद्ध किये हुए आह्लादक सोमादि रस का पान करो। यह तुम्हारे लिये सिद्ध किया हुआ है अर्थात् विजय को प्राप्त कर्मयोगी शूरवीरों की सेवा-शुश्रूषा सोमादि रसों से विधान की गई है ॥१॥

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