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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 13
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता । अग्निः यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् उष्णिक्,भूरिक् आर्ची गायत्री,भुरिक् उष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
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    यु॒ष्माऽइन्द्रो॑ऽवृणीत वृत्र॒तूर्य्ये॑ यू॒यमिन्द्र॑मवृणीध्वं वृत्र॒तूर्ये॒ प्रोक्षि॑ता स्थ। अ॒ग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑म्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि। दैव्या॑य॒ कर्म॑णे शुन्धध्वं देवय॒ज्यायै॒ यद्वोऽशु॑द्धाः पराज॒घ्नुरि॒दं व॒स्तच्छु॑न्धामि॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ष्माः। इन्द्रः॑। अ॒वृ॒णी॒त॒। वृ॒त्र॒तूर्य्य॒ इति॑ वृत्र॒ऽतूर्य्ये॑। यू॒यम्। इन्द्र॑म्। अ॒वृ॒णी॒ध्व॒म्। वृ॒त्र॒तूर्य्य॒ इति॑ वृ॒त्र॒ऽतूर्य्ये॑। प्रोक्षि॑ता॒ इति॒ प्रऽउ॑क्षिताः। स्थ॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्रऽउ॒क्षा॒मि॒ ॥ दैव्या॑य। कर्म॑णे। शु॒न्ध॒ध्व॒म्। दे॒व॒य॒ज्याया॒ इति॑ देवऽय॒ज्यायै॑। यत्। वः॒। अशु॑द्धाः। प॒रा॒ज॒घ्नुरिति॑ पराऽज॒घ्नुः। इ॒दम्। वः॒ तत्। शु॒न्धा॒मि॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युष्माऽइन्द्रो वृणीत वृत्रतूर्ये यूयमिन्द्रमवृणीध्वँ वृत्रतूर्ये प्रोक्षिता स्थ । अग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामियग्नीषोमाभ्यान्त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वन्देवयज्यायै यद्वोशुद्धाः पराजघ्नुरिदँवस्तच्छुन्धामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युष्माः। इन्द्रः। अवृणीत। वृत्रतूर्य्य इति वृत्रऽतूर्य्ये। यूयम्। इन्द्रम्। अवृणीध्वम्। वृत्रतूर्य्य इति वृत्रऽतूर्य्ये। प्रोक्षिता इति प्रऽउक्षिताः। स्थ। अग्नये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। अग्नीषोमाभ्याम्। त्वा। जुष्टम्। प्रऽउक्षामि॥ दैव्याय। कर्मणे। शुन्धध्वम्। देवयज्याया इति देवऽयज्यायै। यत्। वः। अशुद्धाः। पराजघ्नुरिति पराऽजघ्नुः। इदम्। वः तत्। शुन्धामि॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -

    १. इस संसार में जीव का मुख्य उद्देश्य काम आदि शत्रुओं का पराजय है। ये काम आदि शत्रु ज्ञान को आवृत करने के कारण ‘वृत्र’ हैं। इनके साथ किया जानेवाला संग्राम ‘तूर्य’ है। इन काम आदि का संहार ‘वृत्रतूर्य’ है। इस ( वृत्रतूर्ये ) = काम-संहाररूप यज्ञ के निमित्त ( युष्माः ) = तुम्हें ( इन्द्रः ) = उस प्रभु ने ( अवृणीत ) = वरा है, चुना है। जिन लोगों की जीवन-स्थिति बहुत ही निकृष्ट थी उन्हें तो प्रभु ने भोगयोनियों में भेज दिया। मध्यम स्थितिवालों को मानव-जीवन अवश्य मिला, परन्तु वे काम आदि से प्रतारित होनेवाले ‘इ-तर’ जन ही रहे [ common man काम से [ इ ] प्रतारित होनेवाले इतर ], परन्तु जिन लोगों ने गत मन्त्र की भावना के अनुसार अपने को पवित्र करने का प्रयत्न किया, उन्हें प्रभु ने उस सात्त्विक श्रेणी में रक्खा है जो काम आदि के पराजय में लगे रहते हैं। 

    २. ( यूयम् ) = तुम भी ( वृत्रतूर्ये ) = इस काम-संहाररूप संग्राम में ( इन्द्रम् ) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ( अवृणीध्वम् ) = वरो। उसके साहाय्य के बिना इन प्रबल शत्रुओं का विनाश न हो सकेगा। कामदेव को तो महादेव ही भस्म करेंगे। ‘त्वया स्विद् युजा वयम्’ — तुझ साथी के साथ मिलकर ही हम इन शत्रुओं को पराजित कर पाएँगे। 

    ३. उस प्रभु को वरने पर ( प्रोक्षिताः स्थ ) = तुम प्रकर्षेण [ उक्ष सेचने ] सिक्त हो जाते हो। यह जल छिड़कना शुद्धि का प्रतीक है, अतः तुम शुद्ध हो जाते हो। अथवा प्रभु के वरण से तुम शक्ति से भर जाते हो—तुम्हारे अङ्ग-अङ्ग में शक्तिरस का सञ्चार हो जाता है। 

    ४. तुम भी यह निश्चय करो कि ( अग्नये जुष्टम् ) = अग्नि के लिए सेवित ( त्वा ) = तुझे ( प्रोक्षामि ) = अपने में सिक्त करता हूँ, अर्थात् प्रत्येक वस्तु को यज्ञ में विनियुक्त करने के बाद ही मैं यज्ञशिष्ट का अपने लिए प्रयोग करता हूँ और ( त्वा ) = तुझे, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ को ( अग्नीषोमाभ्याम् ) = अग्नि और सोम के लिए ( जुष्टम् ) = सेवित को ( प्रोक्षामि ) = अपने में सिक्त करता हूँ। शक्ति [ अग्नि ] और शान्ति [ सोम ] की वृद्धि के लिए ही प्रत्येक पदार्थ का प्रयोग करता हूँ। भोजन भी मेरे लिए यज्ञ का रूप धारण कर लेता है और उसका लक्ष्य होता है ‘शक्ति और शान्ति की प्राप्ति’। 

    ५. प्रभु कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ के प्रयोग में उक्त भावना को रखकर तुम ( दैव्याय कर्मणे ) = दैव्य कर्मों के लिए—आत्मा के लिए हितकर कर्मों के लिए ( शुन्धध्वम् ) = अपने को शुद्ध कर डालो जिससे ( देवयज्यायै ) = उस महान् देव से तुम्हारा यजन = सङ्गतीकरण हो सके। ‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयाः’ — जनक आदि ने ऐसे ही कर्मों से सिद्धि प्राप्त की थी। तुम भी इन दैव्य कार्यों से उस देव के सान्निध्य को प्राप्त कर सकोगे। 

    ६. इन दिव्य कर्मों में लगने के द्वारा तुममें ( यत् वः ) = जो कुछ ( अशुद्धाः ) = मालिन्य हैं, दोष हैं, वे ( पराजघ्नुः ) = सुदूर विनष्ट हों। ‘योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये’ — योगी लोग आत्मशुद्धि के लिए सदा कर्म किया करते हैं। 

    ७. इस प्रकार ( वः ) = तुम्हारे ( इदं तत् ) = इस प्रसिद्ध शोधन कर्म को ( शुन्धामि ) = शुद्ध कर डालता हूँ, अर्थात् इस प्रकार यह शोधन की प्रक्रिया ठीक रूप से सम्पन्न हो जाती है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु के साहाय्य से हम काम आदि दोषों के संहार में समर्थ हों। दिव्य कर्मों में लगे रहने के द्वारा अपने जीवन को शुद्ध बनाएँ। जो-जो मलिनता है उसे दूर करने का प्रयत्न करें।

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