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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 19
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेतु। धि॒षणा॑सि पर्व॒ती प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु दि॒वः स्क॑म्भ॒नीर॑सि धि॒षणा॑सि पार्वते॒यी प्रति॑ त्वा पर्व॒ती वे॑त्तु ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शर्म॑। अ॒सि॒। अव॑धूत॒मित्यव॑ऽधूतम्। रक्षः॑। अव॑धूता॒ इत्यव॑ऽधूताः। अरा॑तयः। अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑तिः। वे॒त्तु॒। धि॒षणा॑। अ॒सि॒। प॒र्व॒ती। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑त्याः। त्वक्। वे॒त्तु॒। दि॒वः। स्क॒म्भ॒नीः। अ॒सि॒। धिषणा॑। अ॒सि॒। पा॒र्व॒ते॒यी। प्रति॑। त्वा॒। प॒र्व॒ती वे॒त्तु॒ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शर्मास्यवधूतँ रक्षोऽवधूताऽअरातयोदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु । धिषणासि पर्वती प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु दिवः स्कम्भनीरसि धिषणासि पार्वतेयी प्रति त्वा पर्वती वेत्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शर्म। असि। अवधूतमित्यवऽधूतम्। रक्षः। अवधूता इत्यवऽधूताः। अरातयः। अदित्याः। त्वक्। असि। प्रति। त्वा। अदितिः। वेत्तु। धिषणा। असि। पर्वती। प्रति। त्वा। अदित्याः। त्वक्। वेत्तु। दिवः। स्कम्भनीः। असि। धिषणा। असि। पार्वतेयी। प्रति। त्वा। पर्वती वेत्तु॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -

    जब व्यक्ति ज्ञान, बल व यज्ञ को अपनाता है तब उसका जीवन सुखमय हो जाता है। 

    १. ( शर्म असि ) = तू आनन्दमय है, क्योंकि ( रक्षः ) = तूने राक्षसी भावनाओं को ( अवधूतम् ) = कम्पित करके अपने से दूर किया है, ( अवधूताःअरातयः ) = न देने की भावना को दूर भगा दिया है। तू ( अदित्याः त्वक् असि ) = अदीना देवमाता का संस्पर्श करनेवाला है। ( त्वा ) = तुझे ( अदितिः ) = यह अदीना देवमाता ( प्रतिवेत्तु ) = जाने। तू अदिति के सम्पर्क में हो, अदिति तेरे सम्पर्क में हो, अर्थात् तेरा सारा वातावरण ही अदीनता व दिव्य गुणोंवाला हो। संसार में मनुष्य को असभ्य [ blunt ] तो नहीं बनना, परन्तु गिड़गिड़ाना भी तो नहीं। यथासम्भव दिव्य गुणों का अपने में विकास करना है। इस दैवी सम्पति का आरम्भ ‘अभय’ से ही होता है। जीव की इस उन्नति में ‘बुद्धि’ उसकी सहायिका है। आत्मा रथी है तो बुद्धि उसका सारथि है। आत्मा राजा है तो बुद्धि मन्त्रिणी है। आत्मा पति है तो बुद्धि पत्नी है। आत्मा महादेव है तो उसकी पार्वती यह बुद्धि ही है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि ( धिषणा असि ) = तू धारण करनेवाली ‘बुद्धि’ है। पर्वती तू पूरण करनेवाली है [ पर्व पूरणे ], सब न्यूनताओं को दूर करनेवाली है। ( त्वा ) = तुझे ( अदित्याः त्वक् प्रतिवेत्तु ) = अदिति का सम्पर्क सदा प्राप्त रहे 

    २. तू  ( दिवः ) = प्रकाश की ( स्कम्भनीः असि ) = धारण करनेवाली है। जैसे ‘स्कम्भ’ मकान की छत को सदा सहारा देता है, उसी प्रकार जीवन में यह बुद्धि प्रकाश का स्कम्भ है। सारे प्रकाश का साधन यह बुद्धि ही है। यह विकृत हुई और प्रकाश गया। हे ( धिषणा ) = बुद्धि! तू ( पार्वतेयी ) = [ स्वार्थ में तद्धित प्रत्यय है ] पर्वती = पूरण करनेवाली है। ( त्वा ) = तुझे( पर्वती ) = यह पूरण करने की प्रक्रिया ( प्रतिवेत्तु ) = पूर्ण रूप से जाने, अर्थात् इस बुद्धि में हमारे जीवन को न्यूनताओं से ऊपर उठाकर पूर्ण बनाने की शक्ति सदा बनी रहे। उलटे मार्ग पर जाकर यह हमारे विनाश का कारण न बन जाए। प्रभुकृपा से हमारी यह बुद्धि ( पर्वती ) = पूरण करनेवाली बनी रहे।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमारी बुद्धि पर्वती हो—पूरण करनेवाली हो। यह हमें विनाश के मार्ग पर न ले-जाए।

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