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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
इन्द्रा या॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः। सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । तूतु॑जान: । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । ह॒रि॒ऽव॒: ॥ सु॒ते । द॒धि॒ष्व॒ । न॒: । चन॑: ॥८४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः। सुते दधिष्व नश्चनः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । याहि । तूतुजान: । उप । ब्रह्माणि । हरिऽव: ॥ सुते । दधिष्व । न: । चन: ॥८४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 84; मन्त्र » 3
विषय - सात्त्विक अन्न सेवन
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (तूतुजान:) = शीघ्रता करता हुआ अथवा [तुन् हिंसायाम्] सब वासनाओं की हिंसा करता हुआ (आयाहि) = मेरे समीप प्राप्त हो। हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियरूप घोड़ोंवाले! तू (ब्रह्माणि उप) = सदा ज्ञानों के समीप रहनेवाला हो-ज्ञान-प्राप्ति की रुचिवाला बन । इस ज्ञान के द्वारा ही तू वासनाओं को दग्ध करके पवित्र हृदय में प्रभु का दर्शन कर पाएगा। २. (सुते) = सोम की उत्पत्ति के निमित्त (न:) = हमारे दिये हुए (चन:) = इस अन्न को (दधिष्व) = तू धारण करनेवाला बन। यह अन्न ही तेरा भोजन हो। मांस की ओर तेरा झकाव न हो जाए। मांस भोजन से राजसवृत्तिवाला बनकर तू विषयों की ओर झुक जाएगा।
भावार्थ - हम सात्त्विक भोजन करें। सात्त्विक भोजन से सात्त्विक बुद्धिवाले बनें। सात्त्विक बुद्धि से दीप्स ज्ञानाग्निवाले बनकर वासनाओं को दग्ध कर दें, तभी हम प्रभु-दर्शन कर पाएंगे। सात्त्विक अन्न से सात्विक बुद्धिवाला बनकर यह प्रभु का गायन करनेवाला 'प्रगाथ' होता है तथा यह मनुष्य 'मेधातिथि' बनता है-बुद्धि की ओर चलनेवाला । सात्त्विक बुद्धिवाला बनकर यह 'मेध्य' प्रभु की ओर चलनेवाला मेधातिथि बनता है। ये ही अगले सूक्त के ऋषि हैं -
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