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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 13
    ऋषिः - कुश्रिर्ऋषिः देवता - वाजी देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    यु॒ञ्जाथा॒ रास॑भं यु॒वम॒स्मिन् यामे॑ वृषण्वसू। अ॒ग्निं भर॑न्तमस्म॒युम्॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जाथा॑म्। रास॑भम्। यु॒वम्। अ॒स्मिन्। यामे॑। वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू। अ॒ग्निम्। भर॑न्तम्। अ॒स्म॒युमित्य॑स्म॒ऽयुम् ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जाथाँ रासभँयुवमस्मिन्यामे वृषण्वसू । अग्निम्भरन्तमस्मयुम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जाथाम्। रासभम्। युवम्। अस्मिन्। यामे। वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू। अग्निम्। भरन्तम्। अस्मयुमित्यस्मऽयुम्॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -

    हे ( वृषण्वसू ) समस्त सुखों के वर्षक और सबको बसाने वाले स्त्री पुरुषो या विद्वान् गणो ! ( युवम् ) तुम दोनों ( याने ) गमन करने में समर्थ रथ में जिस प्रकार ( रासभम् ) शब्द और दीप्त से युक्त अग्नि का शिल्पी लोग प्रयोग करते हैं उसी प्रकार, हे ( वृषण्वसू ) प्रजा पर सुख वर्षण करनेहारे वीर पुरुषो और हे वसो ! वासशील प्रजाजन ( युवं ) आप लोग ( अस्मिन् यामे ) इस राज्य की नियम व्यवस्था में ( स्मयुम् ) हमें मुख्य उद्देश्य तक पहुंचाने में समर्थ या हमें चाहने वाले हमारे प्रिय हितैषी, ( भरन्तम् ) राष्ट्र के भरणपोषणकारी या कार्य संचालन करनेहारे ( रासभम् ) विज्ञानोपदेश से प्रकाशमान, ( अग्निं ) ज्ञानवान् पुरुष को ( युञ्जाथाम् ) उत्तम पदपर नियुक्त करो। अथवा (अग्निं भरन्तम् = हरन्तं )अग्नि के समान तेजस्वी विजिगीषु राजा को और सन्मार्ग पर लेजानेहारे विद्वान् पुरुष को नियुक्त करो ॥ शत० ६ ।३ ।२ ।३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    कुक्षिरृषिः । रासभो देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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