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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    कृष्णो॑ऽस्याखरे॒ष्ठोऽग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ वेदि॑रसि ब॒र्हिषे॑ त्वा॒ जुष्टां॒ प्रोक्षा॑मि ब॒र्हिर॑सि स्रु॒ग्भ्यस्त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॒मि॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृष्णः॑। अ॒सि॒। आ॒ख॒रे॒ष्ठः। आ॒ख॒रे॒स्थ इत्या॑खरे॒ऽस्थः। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वेदिः॑। अ॒सि॒। ब॒र्हिषे॑। त्वा॒। जुष्टा॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। ब॒र्हिः। अ॒सि॒। स्रु॒ग्भ्य इति स्रु॒क्ऽभ्यः। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णोस्याखरेष्ठोग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे त्वा जुष्टांम्प्रोक्षामि बर्हिरसि स्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टंम्प्रोक्षामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णः। असि। आखरेष्ठः। आखरेस्थ इत्याखरेऽस्थः। अग्नये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। वेदिः। असि। बर्हिषे। त्वा। जुष्टाम्। प्र। उक्षामि। बर्हिः। असि। स्रुग्भ्य इति स्रुक्ऽभ्यः। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 1
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    भावार्थ -

     हे यज्ञ ! यज्ञमय राष्ट्र या राजन् ! तू ( कृष्णः असि) 'कृष्ण' अर्थात् सब प्रजाओं को अपने भीतर आकर्षित करने वाला और ( आखरेष्ट : ) चारों ओर से खोदी हुई खाई के बीच में स्थित दुर्ग के समान सुरक्षित है। अथवा हे क्षेत्र! तू हलादि से कर्षित और कुदाल आदि से खोदे गये स्थान में है । ( अग्नये ) अग्रणी नेता के लिये ( जुष्टम्) प्रेम से स्वीकृत ( त्वा) तुझको मैं ( प्रोक्षामि) जल आदि से सींचता या अभिषिक्त करता हूं। हे पृथिवि ! तू (वेदि असि) वेदी है। तुझसे ही सब पदार्थ और सुख प्राप्त होते हैं । (त्वा) तुझको (बर्हिषे) कुश आदि औषधि के लिये (जुष्टम्) उपयोगी जानकर (प्रोक्षामि) जल से सींचता हूँ । हे ओषधि आदि पदार्थो ! तुम (बर्हि: असि) जीवनों की और प्राणियों की वृद्धि करते हो, अतः (स्रुग्भ्यः) प्राणियों के निमित्त (जुष्टम्) सेवित, उपयुक्त ( त्वा ) तुझको ( प्रोक्षाभि ) सेवन करता हूं । 
    हवन पक्ष में --- ( कृष्ण: ) अग्नि और वायु से छिन्न भिन्न और आकर्षित होकर खोदे हुए स्थान में यज्ञ किया जाता है । अग्नि के निमित्त घृत आदि से सेचन करता हूं । वेदि को अन्तरिक्ष के लिये सींचित करूं, जल को स्रुचादि के लिये प्रोक्षित करूं । स्रुचः --इमे वे लोकः स्रुचः॥ तै० ३ । ३ । १ । २ ॥
    गृहस्थ पक्ष में - ( कृष्ण: ) आकर्षणशील यह गृहस्थाश्रम (आखरेष्ट: ) एक गहरे खने हुए गढ़े में वृक्ष के समान गड़ा है । उसमें उस यज्ञ को अग्नि पुरुष के लिये उपयुक्त उसको पवित्र करता हूं। यह स्त्री वेदि है। उसको ( बर्हिषे ) पुत्र प्राप्त करने या प्रजावृद्धि के लिये अभिषिक्त करता हूँ । (बर्हिः) प्रजाएं अति वृद्धिशील हैं उनको ( स्रुभ्यः ) लोक लोकान्तरों में बसने के लिये दीक्षित करूं । प्रजा वै बर्हिः । कौ० ५ । ७ ॥ ओषधयो बर्हिः । ऐ० ५ । २ ॥
    संवत्सररूप यज्ञ में -- सूर्य कृष्ण है । 'आखर आषाढ़ मास है । अग्नि= अग्नि वेदि = पृथ्वी । बर्हि = शरत । स्रुचः =वायुएं या सूर्यकिरण हैं। इसी प्रकार भिन्न २ यज्ञों में कृष्ण आदि शब्दों के यौगिक अर्थ लेने उचित हैं ।। 
    शत० १ । ३ । ६ । १-३ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः॥
    यज्ञो देवता । निचृत् पंक्तिः । पञ्चमः ॥|

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