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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 12
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अश्वि॑ना घ॒र्मं पा॑त॒ꣳ हार्द्वा॑न॒मह॑र्दि॒वाभि॑रू॒तिभिः॑।त॒न्त्रा॒यिणे॒ नमो॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना। घ॒र्मम्। पा॒त॒म्। हार्द्वा॑नम्। अहः॑। दि॒वाभिः॑। ऊ॒तिभि॒रित्यू॒तिऽभिः॑ ॥ त॒न्त्रा॒यिणे॑। नमः॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना घर्मम्पातँ हार्द्वानमहर्दिवाभिरूतिभिः । तन्त्रायिणो नमो द्यावापृथिवीभ्याम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। घर्मम्। पातम्। हार्द्वानम्। अहः। दिवाभिः। ऊतिभिरित्यूतिऽभिः॥ तन्त्रायिणे। नमः। द्यावापृथिवीभ्याम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 12
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    भावार्थ -
    हे ( अश्विनौ ) राज-प्रजावर्गो ! हे स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों (अहदिवाभिः) दिन और रात सदा, (हार्द्धानम् ) हृदय को प्रिय लगने वाले, (धर्मम् ) तेजस्वी, ऐश्वर्यवान् राष्ट्र को (ऊतिभिः) रक्षासाधनों से (पातम् ) पालन करो । ( तन्त्रायिणे) शस्त्रों और शिल्पों के जानने वाले और कुटुम्ब और उसके समान समस्त राज्यतन्त्र के धारण करने हारे गृहपति और राजा को और ( द्यावापृथिवीभ्याम् ) सूर्य और पृथिवी के समान राजा प्रजा वर्गों और स्त्री-पुरुषों को (नमः) अधिकार, मान और अन्न प्राप्त हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनौ । आर्ची पंक्तिः । पंचमः ॥

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