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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 123/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वेनः देवता - वेनः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒प्स॒रा जा॒रमु॑पसिष्मिया॒णा योषा॑ बिभर्ति पर॒मे व्यो॑मन् । चर॑त्प्रि॒यस्य॒ योनि॑षु प्रि॒यः सन्त्सीद॑त्प॒क्षे हि॑र॒ण्यये॒ स वे॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्स॒राः । जा॒रम् । उ॒प॒ऽसि॒ष्मि॒या॒णा । योषा॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । चर॑त् । प्रि॒यस्य॑ । योनि॑षु । प्रि॒यः । सन् । सीद॑त् । प॒क्षे । हि॒र॒ण्यये॑ । सः । वे॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सरा जारमुपसिष्मियाणा योषा बिभर्ति परमे व्योमन् । चरत्प्रियस्य योनिषु प्रियः सन्त्सीदत्पक्षे हिरण्यये स वेनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्सराः । जारम् । उपऽसिष्मियाणा । योषा । बिभर्ति । परमे । विऽओमन् । चरत् । प्रियस्य । योनिषु । प्रियः । सन् । सीदत् । पक्षे । हिरण्यये । सः । वेनः ॥ १०.१२३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 123; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (अप्सराः) आप्त पुरुषों में प्राप्त-होनेवाली स्तुतिवाणी (उपसिष्मियाणा योषा) कुछ हँसती हुई स्त्री सी (परमे व्योमन्) परम विशिष्ट रक्षक हृदयावकाश में (जारम्) स्तोतव्य या दुःखहर्त्ता परमात्मा को (बिभर्ति) धारण करती है (प्रियस्य-योनिषु) जैसे प्रिय मित्र के घरों में (प्रियः सन् चरत्) प्रिय सखा होता हुआ विचरता है प्राप्त होता है, वैसे (सः-वेनः) वह कमनीय परमात्मा (हिरण्ये पक्षे) ज्योतिर्मय हृदय-में (सीदत्) प्राप्त होता है ॥५॥

    भावार्थ - आप्त पुरुषों में प्राप्तव्य स्तुति हृदय के अन्दर स्तुति करने योग्य दुःखहर्त्ता परमात्मा को धारण कराती है, जो आत्मा का घर है, जैसे मित्र के घरों में मित्र प्राप्त होता है, ऐसे परमात्मा जीवात्मा के घर में प्राप्त होता है ॥५॥

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