ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 139/ मन्त्र 2
ऋषिः - विश्वावसुर्देवगन्धर्वः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नृ॒चक्षा॑ ए॒ष दि॒वो मध्य॑ आस्त आपप्रि॒वान्रोद॑सी अ॒न्तरि॑क्षम् । स वि॒श्वाची॑र॒भि च॑ष्टे घृ॒ताची॑रन्त॒रा पूर्व॒मप॑रं च के॒तुम् ॥
स्वर सहित पद पाठनृ॒ऽचक्षाः॑ । ए॒षः । दि॒वः । मध्ये॑ । आ॒स्ते॒ । आ॒प॒प्रि॒ऽवान् । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । सः । वि॒श्वाचीः॑ । अ॒भि । च॒ष्टि॒ । घृ॒ताचीः॑ । अ॒न्त॒रा । पूर्व॑म् । अप॑रम् । च॒ । के॒तुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नृचक्षा एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम् । स विश्वाचीरभि चष्टे घृताचीरन्तरा पूर्वमपरं च केतुम् ॥
स्वर रहित पद पाठनृऽचक्षाः । एषः । दिवः । मध्ये । आस्ते । आपप्रिऽवान् । रोदसी इति । अन्तरिक्षम् । सः । विश्वाचीः । अभि । चष्टि । घृताचीः । अन्तरा । पूर्वम् । अपरम् । च । केतुम् ॥ १०.१३९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 139; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(नृचक्षाः) कर्म के नेता मनुष्यों का द्रष्टा साक्षी परमात्मा या मनुष्यों द्वारा देखा जानेवाला सूर्य (एषः) यह (दिवः-मध्ये-अस्ति) ज्ञानानन्दमय मोक्ष में वर्तमान है या द्युलोक में रहता है (रोदसी-अन्तरिक्षम्) द्युलोक और अन्तरिक्षलोक को (आपप्रिवान्) पूर्ण करता है (सः) वह (विश्वाचीः-अभिचष्टे) सब दिशाओं को प्रकाशित करता है (पूर्वम्-अपरम्-अन्तरा केतुम्) पूर्व पश्चिम दिशा को और दोनों के मध्य में अन्तराल में होनेवाले केतु-केतनीय-सङ्केत में आनेवाले प्रदेश को भी प्रकाशित करता है ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा कर्म करनेवाले मनुष्यों का द्रष्टा या साक्षी है, ज्ञानानन्दमय मोक्ष में प्राप्त होता है, द्युलोक पृथिवीलोक अन्तरिक्ष में भरा हुआ है-व्याप्त है, सारी दिशाओं को प्रकाशित करता है एवं सूर्य मनुष्यों के द्वारा देखा जानेवाला द्युलोक में वर्तमान तीनों लोकों को प्रकाश से भरनेवाला सब दिशाओं को प्रकाशित करता है ॥२॥
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