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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 155 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 155/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शिरिम्बिठो भारद्वाजः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒दो यद्दारु॒ प्लव॑ते॒ सिन्धो॑: पा॒रे अ॑पूरु॒षम् । तदा र॑भस्व दुर्हणो॒ तेन॑ गच्छ परस्त॒रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒दः । यत् । दारु॑ । प्लव॑ते । सिन्धोः॑ । पा॒रे । अ॒पु॒रु॒षम् । तत् । आ । र॒भ॒स्व॒ । दु॒र्ह॒नो॒ इति॑ दुःऽहनो । तेन॑ । ग॒च्छ॒ । प॒रः॒ऽत॒रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदो यद्दारु प्लवते सिन्धो: पारे अपूरुषम् । तदा रभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदः । यत् । दारु । प्लवते । सिन्धोः । पारे । अपुरुषम् । तत् । आ । रभस्व । दुर्हनो इति दुःऽहनो । तेन । गच्छ । परःऽतरम् ॥ १०.१५५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 155; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (सिन्धोः पारे) समुद्र के पार जाने के निमित्त (यत्-अदः) जो वह (अपूरुषं दारु) पुरुषरहित काष्ठमय नौकारूप (प्लवते) तैरती है (दुर्हणो) हे दुर्हननीय अहिंस्य विद्वन् ! (तत्-आ रभस्व) उसका अवलम्बन कर-उस पर आरोहण कर (तेन-परस्तरं गच्छ) उसके द्वारा अति दूर देश को अन्न लाने के लिए जा ॥३॥

    भावार्थ - जब अपने देश में दुर्भिक्ष-आपत्ति हो जावे, तो दूर देशों से अन्न लाने के लिए समुद्र के पार जाने को यन्त्रचालित नौका-जहाज से अन्न लाना चाहिये ॥३॥

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