ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र के॒तुना॑ बृह॒ता या॑त्य॒ग्निरा रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति । दि॒वश्चि॒दन्ताँ॑ उप॒माँ उदा॑नळ॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षो व॑वर्ध ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । के॒तुना॑ । बृ॒ह॒ता । या॒ति॒ । अ॒ग्निः । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भः । रो॒र॒वी॒ति॒ । दि॒वः । चि॒त् । अन्ता॑न् । उ॒प॒ऽमान् । उत् । आ॒न॒ट् । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । म॒हि॒षः । व॒व॒र्ध॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र केतुना बृहता यात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति । दिवश्चिदन्ताँ उपमाँ उदानळपामुपस्थे महिषो ववर्ध ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । केतुना । बृहता । याति । अग्निः । आ । रोदसी इति । वृषभः । रोरवीति । दिवः । चित् । अन्तान् । उपऽमान् । उत् । आनट् । अपाम् । उपऽस्थे । महिषः । ववर्ध ॥ १०.८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में तीनों लोकों में वर्तमान अग्नितत्त्व का वर्णन किया जाता है और इन्द्र शब्द से परमात्मा उपासनीय वर्णित किया है।
पदार्थ -
(अग्निः) महान् अग्नि (बृहता केतुना) महान् ज्ञापक प्रकाश से (रोदसी) घावापृथिवीमय जगत् के प्रति (प्रयाति) प्राप्त हो रहा है। विभाग से कहते हैं−(वृषभः-रोरवीति) पृथिवी पर अग्निरूप से जलता हुआ वायुयोग से वृषभसमान शब्द करता है (दिवः-अन्तान्-उपमान्-चित्) द्युलोक के प्रान्तभागों को भी तथा उपाश्रित पिण्डों को भी (उदानट्) ऊपर होता हुआ सूर्यरूप से व्याप्त होता है (अपाम्-उपस्थे) जलों के ऊपर स्थान-अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से (महिषः-ववर्ध) महान् त्रिविध अग्नि वृद्धि को प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ - महान् अग्नि द्यावापृथिवीमय जगत् में प्राप्त है, पृथिवी पर अग्निरूप में जलता हुआ-शब्द करता हुआ, द्युलोक में समस्त पिण्डों प्रान्तभागों को प्रकाश देता हुआ सूर्यरूप में, अन्तरिक्ष में मेघस्थ हुआ विद्युद्रूप में मिलता है। ऐसे ही विद्वान् या राजा की बल-ज्ञान-गुणख्याति विद्वन्मण्डल एवं साधारण जनों में हो जाया करती है ॥१॥
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