ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीपो वाम्बरीषः
देवता - आपः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
आपो॒ हि ष्ठा म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ ऊ॒र्जे द॑धातन । म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से ॥
स्वर सहित पद पाठआपः॑ । हि । स्थ । म॒यः॒ऽभुवः॑ । ताः । नः॒ । ऊ॒र्जे । द॒धा॒त॒न॒ । म॒हे । रणा॑य । चक्ष॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठआपः । हि । स्थ । मयःऽभुवः । ताः । नः । ऊर्जे । दधातन । महे । रणाय । चक्षसे ॥ १०.९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में ‘आपः’ शब्द से जलों के गुण और लाभ बतलाये गये हैं।
पदार्थ -
(ताः-आपः) वे तुम जलो ! (मयः-भुवः) सुख को भावित कराने वाले-सुखसम्पादक (हि स्थ) अवश्य हो (नः) हमें (ऊर्जे) जीवनबल के लिये (महे रणाय चक्षसे) महान् रमणीय दर्शन के लिए (दधातन) धारण करो ॥१॥
भावार्थ - जल अवश्य सुखकारण और जीवनबल देनेवाले हैं। यथावसर शीतजल या उष्णजल उपयुक्त हुआ तथा महान् रमणीय दर्शन बाहिरी दृष्टि से नेत्र-शक्ति धारण करानेवाला, भीतरी दृष्टि से मानस शान्ति वा अध्यात्मदर्शन कराने का हेतु भी है। इसी प्रकार आप विद्वान् जन भी सुखसाधक, जीवन में प्रेरणा देनेवाले और अध्यात्मदर्शन के निमित्त हैं। उनका सङ्ग करना चाहिए ॥१॥
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