ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
च॒त्वार॑ ईं बिभ्रति क्षेम॒यन्तो॒ दश॒ गर्भं॑ च॒रसे॑ धापयन्ते। त्रि॒धात॑वः पर॒मा अ॑स्य॒ गावो॑ दि॒वश्च॑रन्ति॒ परि॑ स॒द्यो अन्ता॑न् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठच॒त्वारः॑ । ई॒म् । बि॒भ्र॒ति॒ । क्षे॒म॒ऽयन्तः॑ । दश॑ । गर्भ॑म् । च॒रसे॑ । धा॒प॒य॒न्ते॒ । त्रि॒ऽधात॑वः । प॒र॒माः । अ॒स्य॒ । गावः॑ । दि॒वः । च॒र॒न्ति॒ । परि॑ । स॒द्यः । अन्ता॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चत्वार ईं बिभ्रति क्षेमयन्तो दश गर्भं चरसे धापयन्ते। त्रिधातवः परमा अस्य गावो दिवश्चरन्ति परि सद्यो अन्तान् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठचत्वारः। ईम्। बिभ्रति। क्षेमऽयन्तः। दश। गर्भम्। चरसे। धापयन्ते। त्रिऽधातवः। परमाः। अस्य। गावः। दिवः। चरन्ति। परि। सद्यः। अन्तान् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
विषय - जीव की उत्पत्ति का रहस्य ।
भावार्थ -
भा० - जीवकी उत्पत्ति का रहस्य । जिस प्रकार ( चत्वारः ) पृथिवी, जल, वायु और अग्नि चारों तत्व ( क्षेमयन्तः ) सवका कुशल क्षेम करते हुए (ईं गर्भं) इस अन्तरिक्षगत मेघ को ( बिभ्रति ) पुष्ट करते और (दश) दशों दिशाएं ( चरसे ) उसको विचरण के लिये ( धापयन्ते धारण करती हैं और (अस्य) इस सूर्य के (परमा) उत्कृष्ट ( त्रि-धातवः ) तीनों लोकों का धारण पोषण करने वाले ( गावः ) किरण ( सद्यः ) शीघ्र ही (दिवः अन्तान् परि चरन्ति ) पृथ्वी वा आकाश के दूर २ की सीमाओं तक फैलते हैं उसी प्रकार ( ईम् गर्भम् ) इस गर्भ गत जीवको (क्षेमयन्तः ) उसकी क्षेम, रक्षा, कुशल चाहते हुए, चारों वर्ण वा चारों आश्रम ( बिभ्रति ) पुष्ट करते हैं । और ( चरसे) कर्म फल भोग के लिये ( दश धापयन्ते ) दशों प्राण उसको पुष्ट करते हैं (अस्य) इस जीवात्मा की ( परया ) सर्वोत्कृष्ट ( गावः ) किरणवत् इन्द्रियें ( त्रिधातवः) उस आत्मा को गर्भ, जीवन और मरणोत्तर, तीनों कालों में धारण करती हैं। वे ( सद्यः ) सब दिनों (दिवः अन्तान् ) प्रकाशमय मोक्ष या कामना योग्य भोगक्षेत्र की समस्त सीमाओं तक ( परिचरन्ति ) उस आत्मा की सेवा करती हैं, उसके साथ रहती और सुख दुःख का ज्ञान कराती हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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