ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
यु॒वां न॑रा॒ पश्य॑मानास॒ आप्यं॑ प्रा॒चा ग॒व्यन्त॑: पृथु॒पर्श॑वो ययुः । दासा॑ च वृ॒त्रा ह॒तमार्या॑णि च सु॒दास॑मिन्द्रावरु॒णाव॑सावतम् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । न॒रा॒ । पश्य॑मानासः । आप्य॑म् । प्रा॒चा । गव्यन्तः॑ । पृ॒थु॒ऽपर्श॑वः । य॒युः॒ । दासा॑ । च॒ । वृ॒त्रा । ह॒तम् । आर्या॑णि । च॒ । सु॒ऽदास॑म् । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । अव॑सा । अ॒व॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवां नरा पश्यमानास आप्यं प्राचा गव्यन्त: पृथुपर्शवो ययुः । दासा च वृत्रा हतमार्याणि च सुदासमिन्द्रावरुणावसावतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम् । नरा । पश्यमानासः । आप्यम् । प्राचा । गव्यन्तः । पृथुऽपर्शवः । ययुः । दासा । च । वृत्रा । हतम् । आर्याणि । च । सुऽदासम् । इन्द्रावरुणा । अवसा । अवतम् ॥ ७.८३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र, वरुण, वायु, विद्यत् वत् शत्रुहन्ता और शत्रुवारक अध्यक्षों के कर्त्तव्य । कृषकों वत् सैन्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार प्राचा पूर्व दिशा से ( आप्यं पश्यमानासः ) 'आप' जलों के आगमन के लक्षण देखते हुए ( गव्यन्तः ) भूमि के कर्षणादि के इच्छुक ( पृथु-पर्शवः ) बड़े हल, फावड़े आदि लेकर भूमि खोदने के लिये जाते हैं उसी प्रकार हे ( नरा ) उत्तम नायक जनो ! ( प्राचा ) सम्मुख से परस्पर ( आप्यं ) बन्धुभाव वा प्राप्तव्य लक्ष्य को ( पश्यमानासः ) देखते हुए (गव्यन्तः ) भूमि के विजय की कामना ( पृथु-पर्शवः ) बड़े २ परशु आदि शस्त्रास्त्र हाथ में लिये ( ययुः ) आगे बढ़ें। जिस प्रकार वायु और विद्युत् दोनों ( वृत्रा हतम् ) मेघस्थ जलों पर आघात करते हैं उसी प्रकार ( युवां ) हे इन्द्र और वरुण ! शत्रुहनन और शत्रु वारण करने वालो ! आप दोनों (दासा) विनाशकारी और (आर्याणि) 'अरि' अर्थात् शत्रु-पक्ष के (वृत्रा) बढ़ते हुए शत्रु-सैन्यों को ( हतम् ) मारो और (दासा च) भृत्यादि तथा (आर्याणि) 'आर्य' स्वामी वा वैश्यों के उपयोगी ( वृत्रा ) नाना धनों को भी ( हतम् ) प्राप्त करो। हे ( इन्द्रावरुणा ) ऐश्वर्यवन् ! हे श्रेष्ठ पुरुष ! तुम दोनों (सु-दासम्) उत्तम दानशील, धनी तथा उत्तम भृत्य आदि की भी ( अवसा अवतम् ) रक्षादि साधनों द्वारा रक्षा करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
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