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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भ्य॑र्च नभाक॒वदि॑न्द्रा॒ग्नी य॒जसा॑ गि॒रा । ययो॒र्विश्व॑मि॒दं जग॑दि॒यं द्यौः पृ॑थि॒वी म॒ह्यु१॒॑पस्थे॑ बिभृ॒तो वसु॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । अ॒र्च॒ । न॒भा॒क॒ऽवत् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । य॒जसा॑ । गि॒रा । ययोः॑ । विश्व॑म् । इ॒दम् । जग॑त् । इ॒यम् । द्यौः । पृ॒थि॒वी । म॒ही । उ॒पऽस्थे॑ । बि॒भृ॒तः । वसु॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्यर्च नभाकवदिन्द्राग्नी यजसा गिरा । ययोर्विश्वमिदं जगदियं द्यौः पृथिवी मह्यु१पस्थे बिभृतो वसु नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । अर्च । नभाकऽवत् । इन्द्राग्नी इति । यजसा । गिरा । ययोः । विश्वम् । इदम् । जगत् । इयम् । द्यौः । पृथिवी । मही । उपऽस्थे । बिभृतः । वसु । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    ( नभाकवत् ) उत्तम प्रबन्धकर्त्ता जनों से युक्त (इन्द्राग्नी) उन इन्द्र, अग्नि और राजा, और नायक को तू हे विद्वन् ! ( यजसा गिरा ) उत्तम संगतिकारक वाणी से (अमि-अर्च) स्तुति कर, उनका आदर सरकार कर। ( ययोः ) जिनके आश्रय पर ( इयं द्यौः ) यह सूर्य और ( इयं मही: पृथिवी ) यह बड़ी भारी पृथिवी जिस प्रकार ( इदं विश्वं वसु ) इस समस्त बसे जगत् और ऐश्वर्य को ( बिभृतः ) धारण करते हैं उसी प्रकार राजा, नायक दोनों के बलपर सूर्य पृथिवीवत् पुरुष स्त्री वा राजा प्रजावर्ग दोनों ( इदं विश्वं वसु ) इस समस्त राष्ट्ररूप ऐश्वर्य को अपने पास धारण करते हैं। ( अन्यके समे नभन्ताम् ) और विरोधी शत्रु नष्ट हो जाते हैं। वायु और अग्नि दो तत्वों के बल पर ही समस्त प्राणी जीते हैं। शत्रुओं को नहीं सा कर सकते हैं। विद्वान् उन दोनों को 'नभाक' जर्थात् शत्रुनाशक जान कर उनका उत्तम प्रयोग करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नाभाक: काण्व ऋषिः॥ इन्दाग्नी देवते॥ छन्दः—१, ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ४ स्वराट् त्रिष्टुप्। १२ निचत् त्रिष्टुप्। २ स्वराट् शक्वरी। ५, ७, जगती। ६ भुरिग्जगती। ८, १० निचृज्जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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