ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒न्तश्च॒ प्रागा॒ अदि॑तिर्भवास्यवया॒ता हर॑सो॒ दैव्य॑स्य । इन्द॒विन्द्र॑स्य स॒ख्यं जु॑षा॒णः श्रौष्टी॑व॒ धुर॒मनु॑ रा॒य ऋ॑ध्याः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरिति॑ । च॒ । प्र । अगाः॑ । अदि॑तिः । भ॒वा॒सि॒ । अ॒व॒ऽया॒ता । हर॑सः । दैव्य॑स्य । इन्दो॒ इति॑ । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । जु॒षा॒णः । श्रौष्टी॑ऽइव । धुर॑म् । अनु॑ । रा॒ये । ऋ॒ध्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्च प्रागा अदितिर्भवास्यवयाता हरसो दैव्यस्य । इन्दविन्द्रस्य सख्यं जुषाणः श्रौष्टीव धुरमनु राय ऋध्याः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरिति । च । प्र । अगाः । अदितिः । भवासि । अवऽयाता । हरसः । दैव्यस्य । इन्दो इति । इन्द्रस्य । सख्यम् । जुषाणः । श्रौष्टीऽइव । धुरम् । अनु । राये । ऋध्याः ॥ ८.४८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
विषय - सोम शिष्य, उपासक के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में विद्वान् और देह में वीर्य का वर्णन।
भावार्थ -
हे ( इन्दो ) चन्द्रवत् आह्लादकारक सोम ! शिष्यजन ! तू (अन्तः च प्र अगाः) भीतर गुरुगृह में, माता के गर्भ में बालक के समान आ। तू (अदितिः भवासि) अखण्डित व्रत होकर पुत्रवत् रह। तू ( दैव्यस्य हरसः ) देव, विद्या चाहने वाले शिष्य जनों के उचित, ( हरसः ) क्रोध या तीक्ष्णता को ( अव-याता ) विनीत होकर प्राप्त कर। तू ( इन्द्रस्य ) ज्ञानी, तत्वदर्शी आचार्य के ( सख्यं जुषाणः ) मैत्री को प्राप्त करता हुआ, (श्रौष्टी इव धुरम्) जूए के नीचे क्षिप्रगामी अश्व या बैल के समान विनीत होकर (राये अनु ऋध्याः ) दानयोग्य ज्ञान ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये अनुगामी होकर रह, और ज्ञान से सम्पन्न हो। (२) इसी प्रकार विद्वान्, अदीन हो, भीतर आवे, मनुष्यों के क्रोधादि को दूर करे, ऐश्वर्यवानों का मित्र होकर उनका कार्य करके स्वयं भी सम्पन्न हो। ( ३ ) इसी प्रकार ( इन्दुः) इस देह में द्रुतरूप से विद्यमान वीर्य देह के भीतर रहे, अखण्ड रहे, ( दैव्यस्य हरसः ) इन्द्रियों के वेग को शान्त करे, आत्मा का सख्य लाभ कर ऐश्वर्य सुखादि से सम्पन्न हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥
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