अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 13
परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि। परा॒र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपः॒ शोशु॑चतः शृणीहि ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । शृ॒णी॒हि॒ । तप॑सा । या॒तु॒ऽधाना॑न् । परा॑ । अ॒ग्ने॒ । रक्ष॑: । हर॑सा । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒र्चिषा॑ । मूर॑ऽदेवान् । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒सु॒ऽतृप॑: । शोशु॑चत: । शृ॒णी॒हि॒ ॥३.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
परा शृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि। परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपः शोशुचतः शृणीहि ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । शृणीहि । तपसा । यातुऽधानान् । परा । अग्ने । रक्ष: । हरसा । शृणीहि । परा । अर्चिषा । मूरऽदेवान् । शृणीहि । परा । असुऽतृप: । शोशुचत: । शृणीहि ॥३.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 13
विषय - प्रजा पीडकों का दमन।
भावार्थ -
हे अग्ने ! राजन् ! (यातुधानान्) प्रजापीड़क पुरुषों को (तपसा) अपने संतापकारी तेज या शस्त्र से (परा शृणीहि) अच्छी प्रकार, विनष्ट कर और (हरसा) विनाशक बल से (रक्षः) राक्षस, दुष्ट पुरुष को (परा-शृणीहि) अच्छी प्रकार विनष्ट कर। और (मूरदेवान्) मूढ देवों को माननेवाले, प्रतिमापूजक, पाखण्डी, या दूसरों को मारने के व्यसनी अथवा मूढ़ होकर व्यसनों में मज़ा लेनेवाले लोगों को (अर्चिषा) आग की ज्वाला से (परा शृणीहि) अच्छी प्रकार विनष्ट कर और (असु तृपः) दूसरों का प्राण लेकर अपना पेट भरनेवाले, प्राणघातक डाकुओं को (शोशुचतः) शोक विलाप करते हुए भी (पराशृणीहि) खूब अच्छी प्रकार विनष्ट कर कि वे फिर अपनी दुष्टता न करें। अथवा ‘अर्चिः’ ‘हर’ और ‘तपः’ ये तीन प्रकार के शस्त्र अस्त्र हैं जिनसे दूर से ही प्रहार कर दिया जाता है। उन तीनों प्रकार के अस्त्रों से उनकी (पराशृणीहि) इतना अधिक दण्ड दिया जाय कि ‘परा’ अर्थात हद हो जाय, और वे फिर भी दुष्टता को त्याग कर सन्मार्ग पर लौट आयें।
टिप्पणी -
(च०) ‘परासुतृपो अभिशोशुचानः’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
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