ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
तक्ष॒न्रथं॑ सु॒वृतं॑ विद्म॒नाप॑स॒स्तक्ष॒न्हरी॑ इन्द्र॒वाहा॒ वृष॑ण्वसू। तक्ष॑न्पि॒तृभ्या॑मृ॒भवो॒ युव॒द्वय॒स्तक्ष॑न्व॒त्साय॑ मा॒तरं॑ सचा॒भुव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतक्ष॑न् । रथ॑म् । सु॒ऽवृत॑म् । वि॒द्म॒नाऽअ॑पसः । तक्ष॑न् । हरी॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ऽवाहा॑ । वृष॑ण्वसू॒ इति॒ वृष॑ण्ऽवसू । तक्ष॑न् । पि॒तृऽभ्या॑म् । ऋ॒भवः॑ । युव॑त् । वयः॑ । तक्ष॑न् । व॒त्साय॑ । मा॒तर॑म् । स॒चा॒ऽभुव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तक्षन्रथं सुवृतं विद्मनापसस्तक्षन्हरी इन्द्रवाहा वृषण्वसू। तक्षन्पितृभ्यामृभवो युवद्वयस्तक्षन्वत्साय मातरं सचाभुवम् ॥
स्वर रहित पद पाठतक्षन्। रथम्। सुऽवृतम्। विद्मनाऽअपसः। तक्षन्। हरी इति। इन्द्रऽवाहा। वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू। तक्षन्। पितृऽभ्याम्। ऋभवः। युवत्। वयः। तक्षन्। वत्साय। मातरम्। सचाऽभुवम् ॥ १.१११.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पकुशला मेधाविनः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।
अन्वयः
ये पितृभ्यां युक्ता विद्मनापस ऋभवो मेधाविनो जना वृषण्वसू हरी इन्द्रवाहा तक्षन् सुवृतं रथं तक्षन् वयस्तक्षन् वत्साय सचाभुवं मातरं युवत्तक्षंस्तेऽधिकमैश्वर्यं लभेरन् ॥ १ ॥
पदार्थः
(तक्षन्) सूक्ष्मरचनायुक्तं कुर्वन्तु (रथम्) विमानादियानसमूहम् (सुवृतम्) शोभनविभागयुक्तम् (विद्मनापसः) विज्ञानेन युक्तानि कर्माणि येषां ते। अत्र तृतीयाया अलुक्। (तक्षन्) सूक्ष्मीकुर्वन्तु (हरी) हरणशीलौ जलाग्न्याख्यौ (इन्द्रवाहा) याविन्द्रं विद्युतं परमैश्वर्य्यं वहतस्तौ। अत्राकारादेशः। (वृषण्वसू) वृषाणो विद्याक्रियाबलयुक्ता वसवो वासकर्त्तारो मनुष्या ययोस्तौ (तक्षन्) विस्तीर्णीकुर्वन्तु (पितृभ्याम्) अधिष्ठातृशिक्षकाभ्याम् (ऋभवः) क्रियाकुशला मेधाविनः (युवत्) मिश्रणामिश्रणयुक्तम्। अत्र युधातोरौणादिको बाहुलकात् क्तिन् प्रत्ययः। (वयः) जीवनम् (तक्षन्) विस्तारयन्तु (वत्साय) सन्तानाय (मातरम्) जननीम् (सचाभुवम्) सचा विज्ञानादिना भावयन्तीम् ॥ १ ॥
भावार्थः
विद्वांसो यावदिह जगति कार्यगुणदर्शनपरीक्षाभ्यां कारणं प्रति न गच्छन्ति तावच्छिल्पविद्यासिद्धिं कर्त्तुं न शक्नुवन्ति ॥ १ ॥
हिन्दी (1)
विषय
अब एकसौ ग्यारहवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में शिल्पविद्या में चतुर बुद्धिमान् क्या करें, यह उपदेश किया है ।
पदार्थ
जो (पितृभ्याम्) स्वामी और शिक्षा करनेवालों से युक्त (विद्मनापसः) जिनके अति विचारयुक्त कर्म हों वे (ऋभवः) क्रिया में चतुर मेधावीजन (वृषण्वसू) जिनमें विद्या और शिल्पक्रिया के बल से युक्त मनुष्य निवास करते-कराते हैं (हरी) उन एक स्थान से दूसरे स्थान को शीघ्र पहुँचाने तथा (इन्द्रवाहा) परमैश्वर्य को प्राप्त करानेवाले जल और अग्नि को (तक्षन्) अति सूक्ष्मता के साथ सिद्ध करें वा (सुवृतम्) अच्छे-अच्छे कोठे-परकोठेयुक्त (रथम्) विमान आदि रथ को (तक्षन्) अति सूक्ष्म क्रिया से बनावें वा (वयः) अवस्था को (तक्षन्) विस्तृत करें तथा (वत्साय) सन्तान के लिये (सचाभुवम्) विशेष ज्ञान की भावना कराती हुई (मातरम्) माता का (युवत्) मेल जैसे हो वैसे (तक्षन्) उसे उन्नति देवें, वे अधिक ऐश्वर्य को प्राप्त होवें ॥ १ ॥
भावार्थ
विद्वान् जन जब तक इस संसार में कार्य्य के दर्शन और गुणों की परीक्षा से कारण को नहीं पहुँचते हैं, तब तक शिल्पविद्या को नहीं सिद्ध कर सकते हैं ॥ १ ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात बुद्धिमानांच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे ॥
भावार्थ
विद्वान लोक जोपर्यंत या जगात कार्याचे दर्शन व गुणांच्या परीक्षेद्वारे कारणापर्यंत पोचत नाहीत तोपर्यंत शिल्पविद्या सिद्ध करू शकत नाहीत. ॥ १ ॥
English (1)
Meaning
Let the Rbhus, with their knowledge and action in the field of science and technology, manufacture a sophisticated multistage chariot for the ride of Indra, lord of wealth and honour and generous giver of showers of prosperity. Let them also creates the horse power for that chariot to carry Indra and the wealth of riches. Let them create new youthful vigour for the ageing parents and seniors and the mother cow for the calf to provide protection for it.
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