Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वं तासां॑ दि॒व्यस्य॑ प्र॒शास॑ने वि॒शां क्ष॑यथो अ॒मृत॑स्य म॒ज्मना॑। याभि॑र्धे॒नुम॒स्वं१॒॑ पिन्व॑थो नरा॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । तासा॑म् । दि॒व्यस्य॑ । प्र॒ऽशास॑ने । वि॒शाम् । क्ष॒य॒थः॒ । अ॒मृत॑स्य । म॒ज्मना॑ । याभिः॑ । धे॒नुम् । अ॒स्व॑म् । पिन्व॑थः । न॒रा॒ । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं तासां दिव्यस्य प्रशासने विशां क्षयथो अमृतस्य मज्मना। याभिर्धेनुमस्वं१ पिन्वथो नरा ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। तासाम्। दिव्यस्य। प्रऽशासने। विशाम्। क्षयथः। अमृतस्य। मज्मना। याभिः। धेनुम्। अस्वम्। पिन्वथः। नरा। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नराऽश्विना युवं दिव्यस्याऽमृतस्य मज्मना सह यास्तत्संबन्धे प्रजास्सन्ति तासां विशां प्रशासने क्षयथ उ याभिरूतिभिरस्वं धेनुम् पिन्वथस्ताभिः स्वागतम् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (युयम्) युवामुपदेशकाध्यापकौ (तासाम्) पूर्वोक्तानाम् (दिव्यस्य) अतिशुद्धस्य (प्रशासने) (विशाम्) मनुष्यादिप्रजानाम् (क्षयथः) निवसथः (अमृतस्य) नाशरहितस्य परमात्मनः (मज्मना) बलेन (याभिः) (धेनुम्) वाचम् (अस्वम्) या दुष्कर्म न सूते नोत्पादयति ताम् (पिन्वथः) सेवेथाम् (नरा) नायकौ (ताभिः) (उ) वितर्के (सु) शोभने (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः (अश्विना) (आ) (गतम्) समन्तात् प्राप्नुतम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    त एव धन्या विद्वांसो ये प्रजाजनान् विद्यासुशिक्षासुखवृद्धये प्रसादयन्ति तेषां शरीरात्मनो बलं च नित्यं वर्द्धयन्ति ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नरा) विद्या व्यवहार में प्रधान (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक लोगो ! (युवम्) तुम दोनों (दिव्यस्य) अतीव शुद्ध (अमृतस्य) नाशरहित परमात्मा के (मज्मना) अनन्त बल के साथ जो परमात्मा के सम्बन्ध में प्रजाजन हैं (तासाम्) उन (विशाम्) प्रजाओं के (प्रशासने) शिक्षा करने में (क्षयथः) निवास करते हो (उ) और (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्वम्) जो दुष्ट काम को न उत्पन्न करती है उस (धेनुम्) सब सुख वर्षानेवाली वाणी का (पिन्वथः) सेवन करते हो (ताभिः) उन रक्षाओं के साथ (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार हम लोगों को प्राप्त होओ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    वे ही धन्य विद्वान् हैं जो प्रजाजनों को विद्या, अच्छी शिक्षा और सुख की वृद्धि होने के लिये प्रसन्न करते और उनके शरीर तथा आत्मा के बल को नित्य बढ़ाया करते हैं ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अवन्ध्या वेदधेनु

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (तासाम्) = उन [गतमन्त्र में जिनका सुभराः शब्द से उल्लेख हुआ है] (विशाम्) = प्रजाओं के (प्रशासने) = प्रकृष्ट शासन में होने पर , अर्थात् उनका जब आप पर पूर्ण प्रभुत्व होता है तब आप (दिव्यस्य) = उस प्रकाशमय दिव्यगुणों के पुञ्ज (अमृतस्य) = कभी नष्ट न होनेवाले प्रभु के (मज्मना) = बल के साथ (क्षयथः) = निवास करते हो । जब प्राणसाधना के द्वारा एक व्यक्ति प्राणों को अपने वश में कर लेता है तब ये प्राण उसे प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न करनेवाले होते हैं । ये लोग प्राणसाधना से प्रभु के प्रभाव को प्राप्त कर लेते हैं । वेदान्त के शब्दों में इनके ऐश्वर्य में इतनी ही कमी रह जाती है कि ये नया संसार नहीं बना पाते । 

    २. हे प्राणापानो ! (नरा) = आप हमें [नृ नये] उन्नति - पथ पर आगे ले - चलनेवाले हो । आप (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों के साथ (उ) = निश्चय से (सु - आगतम्) = उत्तमतापूर्वक हमें प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे (अस्वम्) = अब सन्तान को जन्म न देनेवाली , अर्थात् वन्ध्या हुई - हुई (धेनुम्) = गौ को (पिन्वथः) = पूरित कर देते हो [पयसा पूरितवन्तौ - सा०] । यहाँ गौ वेदवाणी है । यह प्राणसाधना के अभाव में बुद्धिमान्द्य के कारण अर्थशून्य - सी प्रतीत होती है । अब तीव्र बुद्धि के कारण यह सुस्पष्ट अर्थवाली होने से ज्ञानदुग्ध को देनेवाली हो गई है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से प्रभु की शक्ति से हम शक्तिसम्पन्न बनते हैं । तीन बुद्धिवाले होकर वेदवाणी को समझने लगते हैं और वेदधेनु हमारे लिए वन्ध्या नहीं रह जाती । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    द्विमाता तरणि, त्रिमन्तु विचक्षण का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( दिव्यस्य अमृतस्य प्रशासने यज्मना विशां क्षयथः ) उस उत्तम तेजस्वी, अमर आत्मा के उत्तम शासन में जिस प्रकार प्रजाओं-देहों में प्राण और अपान दोनों रहते हैं ( अस्त्रं धेनुं पिन्वथः ) अन्यों से न प्रेरित होने वाली, अदम्य या नित्य, वाणी को बलवान् बनाते हैं उसी प्रकार हे ( अश्विना ) स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों भी ( दिव्यस्य ) ज्ञानप्रकाश में कुशल ( अमृतस्य ) अमर अविनाशी परमेश्वर के ( प्रशासने ) उत्तम शासन में ( मज्मना ) बलपूर्वक ( विशां शयथः ) प्रजाओं के बीच में निवास करो । इसी प्रकार हे मुख्य राजा रानी, राजा अमात्य, राजा सेना पति आदि युगलो! आप दोनों भी ( दिव्यस्य ) राजसभा में कुशल ( अमृतस्य ) दीर्घजीवी, अमर यशस्वी सब के उत्तम शासन या आदेश के भीतर ( तासां विशां ) उन प्रजाओं के हित के लिये ( क्षयथः ) उन के बीच में निवास करो। आप दोनों ( अस्वं ) अयोग्य पुरुषों से शासन न होने योग्य, अथवा पूर्व कुछ भी पुत्र रत्नादि न उत्पन्न करने हारा । धारण करने योग्य, बाद में गर्भ धारण करने में समर्थ, कुमारी कन्या या गौ के समान अन्नादि रत्नों को दान कराने वाली भूमि को ( याभिः पिन्व थः ) नाना ऐश्वर्यो से सेचन करते हो, उस को परिपुष्ट करते हो ( ताभिः अतिभिः ) उन रक्षादि उपायों से आप ( आसुतम् ) अच्छी प्रकार प्राप्त होवो । ‘अस्त्रं धेनुम्’ – इस असू धेनु का विवरण देखो अथर्ववेद में वशा सूक्त ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेच विद्वान धन्य आहेत जे प्रजेला विद्या, सुशिक्षण व सुखाची वृद्धी करण्यासाठी प्रसन्न ठेवतात. त्यांच्या शरीर व आत्म्याचे बल सदैव वाढवितात. ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Ashvins, teachers, scholars and leaders of the nation, harbingers of health and vitality from the sap of nature, who reside in the midst of the socio-economic and educational system of the people and rule and teach by the power of celestial soma and by the grace of the pure and eternal lord of immortality, come and bless us with those means of vitality, safety and protection by which you revitalize the enervated holy speech and education like rejuvenation of the barren cow.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leading teachers and preachers, you dwell in ruling over the subjects who are connected with the power of the Divine Immortal Supreme Being. Please come to us with your protective powers with which you use the speech that does not generate any evil thought or action.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मज्मना) बलेन = With the Power. मज्मना बलनाम (निघ० २.९ ) (धेनुम् ) वाचम् = Speech. (अस्वम् ) या दुष्कर्म न सूते नोत्पादयति ताम् = That which does not generate evil thought or action. धेनुरिति वाङ्नाम (निघ० १.११) Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Blessed are those scholars who please the people for the multiplication of wisdom, good education and happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top