ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 113/ मन्त्र 10
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - उषाः द्वितीयस्यार्द्धर्चस्य रात्रिरपि
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
किया॒त्या यत्स॒मया॒ भवा॑ति॒ या व्यू॒षुर्याश्च॑ नू॒नं व्यु॒च्छान्। अनु॒ पूर्वा॑: कृपते वावशा॒ना प्र॒दीध्या॑ना॒ जोष॑म॒न्याभि॑रेति ॥
स्वर सहित पद पाठकिय॑ति । आ । यत् । स॒मया॑ । भवा॑ति । याः । वि॒ऽऊ॒षुः । याः । च॒ । नू॒नम् । वि॒ऽउ॒च्छान् । अनु॑ । पूर्वाः॑ । कृ॒प॒ते॒ । वा॒व॒शा॒ना । प्र॒ऽदीध्या॑ना । जोष॑म् । अ॒न्याभिः॑ । ए॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कियात्या यत्समया भवाति या व्यूषुर्याश्च नूनं व्युच्छान्। अनु पूर्वा: कृपते वावशाना प्रदीध्याना जोषमन्याभिरेति ॥
स्वर रहित पद पाठकियति। आ। यत्। समया। भवाति। याः। विऽऊषुः। याः। च। नूनम्। विऽउच्छान्। अनु। पूर्वाः। कृपते। वावशाना। प्रऽदीध्याना। जोषम्। अन्याभिः। एति ॥ १.११३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 113; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे स्त्रि यद् यथा याः पूर्वा उषसस्ताः सर्वान् पदार्थान् कियति समया व्यूषुर्याश्च व्युच्छान् वावशाना प्रदीध्याना सती कृपते नूनमाभवाति तद्वदन्याभिः सह जोषमन्वेति तथा मया पत्या सह सदा वर्त्तस्व ॥ १० ॥
पदार्थः
(कियति) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (आ) (यत्) तथा (समया) काले (भवाति) भवेत् (याः) उषसः (व्यूषुः) (याः) (च) (नूनम्) निश्चितम् (व्युच्छान्) व्युच्छन्ति तान् (अनु) आनुकूल्ये (पूर्वाः) अतीताः (कृपते) समर्थयतु। व्यत्येनात्र शः। (वावशाना) भृशं कामयमानेव (प्रदीध्याना) प्रदीप्यमाना (जोषम्) प्रीतिम् (अन्याभिः) स्त्रीभिः (एति) प्राप्नोति ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। कियत्समयोषा भवतीति प्रश्नः। सूर्य्योदयात्प्राग्यावान् पञ्चघटिकासमय इत्युत्तरम्। का स्त्रियः सुखमाप्नुवन्तीति, या अन्याभिर्विदुषीभिः पतिभिश्च सह सततं सङ्गच्छेयुस्ताः प्रशंसनीयाश्च स्युः। याः करुणां विदधति ताः पतीन् प्रीणयन्ति। याः पत्यनुकूला वर्त्तन्ते ताः सदाऽऽनन्दिता भवन्ति ॥ १० ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे स्त्रि ! (यत्) जैसे (याः) जो (पूर्वाः) प्रथम गत हुईं प्रभात वेला सब पदार्थों को (कियति) कितने (समया) समय (व्यूषुः) प्रकाश करती रहीं (याः, च) और जो (व्युच्छान्) स्थिर पदार्थों की (वावशाना) कामना सी करती (प्रदीध्याना) और प्रकाश करती हुई (कृपते) अनुग्रह करती (नूनम्) निश्चय से (आ, भवाति) अच्छे प्रकार होती अर्थात् प्रकाश करती उसके तुल्य यह दूसरी विद्यावती विदुषी (अन्याभिः) और स्त्रियों के साथ (जोषमन्वेति) प्रीति को अनुकूलता से प्राप्त होती है, वैसे तू मुझ पति के साथ सदा वर्त्ता कर ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। (प्रश्न-) कितने समय तक उषःकाल होता है ? (उत्तर-) सूर्य्योदय से पूर्व पाँच घड़ी उषःकाल होता है। (प्रश्न-) कौन स्त्री सुख को प्राप्त होती है ? (उत्तर-) जो अन्य विदुषी स्त्रियों और अपने पतियों के साथ सदा अनुकूल रहती हैं, और वे स्त्री प्रशंसा को भी प्राप्त होती हैं, जो कृपालु होती हैं, वे स्त्री पतियों को प्रसन्न करती हैं, जो पतियों के अनुकूल वर्त्तती हैं, वे सदा सुखी रहती हैं ॥ १० ॥
विषय
सामर्थ्य व प्रकाश
पदार्थ
१.(याः) = जो उषाएँ (व्यूषुः) = हो चुकी हैं - अन्धकार - निवारण के कार्य को कर चुकी हैं (च याः) = और जो (नूनम्) = निश्चय से (व्युच्छान्) = अन्धकार - निवारण के कार्य को करेंगी वे (कियती समया) = कितने समय तक (आभवाती) = सब प्रकार से हमारे साथ होती हैं , अर्थात् बहुत थोड़ी सी देर के लिए ही हमारे साथ होती हैं , परन्तु (यत्) = यह जो प्रस्तुत उषाकाल है वह (पूर्वाः अनु) = पहले उषाकालों के अनुसार ही (कृपते) = [कृपू सामर्थ्ये] हमें सामर्थ्य व शक्ति देनेवाला होता है । २. यह उषा (वावशाना) = हमारे हित को चाहती हुई तथा (प्रदीध्याना) = प्रकृष्ट दीप्ति करती हुई (अन्याभिः) = अन्य आनेवाली उषाओं के साथ (जोषम्) = प्रीति को (एति) = प्राप्त होती है । बड़े स्नेह के साथ यह आती है और हमें सामर्थ्य व प्रकाश , शक्ति व ज्ञान देती है ।
भावार्थ
भावार्थ - उषा का समय थोड़ा - सा होता है , परन्तु वह थोड़ा - सा समय भी हममें सामर्थ्य व प्रकाश का सञ्चार करता है , अतः जीवनोत्थान के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे.
टिप्पणी
प्र. उषःकाल किती वेळ असतो?उ. सूर्योदयापूर्वी पाच घटका उषःकाल असतो. प्र. कोणत्या स्त्रिया सुखी असतात?उ. ज्या इतर विदुषी स्त्रियांबरोबर व आपल्या पतींबरोबर सदैव अनुकूल असतात त्याच प्रशंसेस पात्र असतात. ज्या कृपामयी असतात त्या पतींना प्रसन्न करतात. ज्या पतीच्या अनुकूल वागतात त्या सदैव सुखी राहतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
How long did the dawns last which came and shone earlier? How long would they shine and last which, lovely and brilliant as the earlier ones, remind us of the past ones and brighten up the present around? The dawn would last for ever thus in company with the preceding and the following.
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