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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 119/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ वां॒ रथं॑ पुरुमा॒यं म॑नो॒जुवं॑ जी॒राश्वं॑ य॒ज्ञियं॑ जी॒वसे॑ हुवे। स॒हस्र॑केतुं व॒निनं॑ श॒तद्व॑सुं श्रुष्टी॒वानं॑ वरिवो॒धाम॒भि प्रय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । रथ॑म् । पु॒रु॒ऽमा॒यम् । म॒नः॒ऽजुव॑म् । जी॒रऽअ॑श्वम् । य॒ज्ञिय॑म् । जी॒वसे॑ । हु॒वे॒ । स॒हस्र॑ऽकेतुम् । व॒निन॑म् । श॒तत्ऽव॑सुम् । श्रु॒ष्टी॒ऽवान॑म् । व॒रि॒वः॒ऽधाम् । अ॒भि । प्रयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां रथं पुरुमायं मनोजुवं जीराश्वं यज्ञियं जीवसे हुवे। सहस्रकेतुं वनिनं शतद्वसुं श्रुष्टीवानं वरिवोधामभि प्रय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। रथम्। पुरुऽमायम्। मनःऽजुवम्। जीरऽअश्वम्। यज्ञियम्। जीवसे। हुवे। सहस्रऽकेतुम्। वनिनम्। शतत्ऽवसुम्। श्रुष्टीऽवानम्। वरिवःऽधाम्। अभि। प्रयः ॥ १.११९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 119; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे अश्विना प्रयोऽहं जीवसे वां युवयोः पुरुमायं जीराश्वं यज्ञियं सहस्रकेतुं शतद्वसुं वनिनं श्रुष्टीवानं मनोजुवं वरिवोधां रथमभ्याहुवे ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः स्त्रीपुरुषयोः (रथम्) रमणीयं विमानादियानम् (पुरुमायम्) पूर्व्या मायया प्रज्ञया संपादितम् (मनोजुवम्) मनोवद्वेगवन्तम् (जीराश्वम्) जीरान् जीवान् प्राणधारकानश्नुते येन तम् (यज्ञियम्) यज्ञयोग्यं देशं गन्तुमर्हम् (जीवसे) जीवनाय (हुवे) स्तुवे (सहस्रकेतुम्) असंख्यातध्वजम् (वनिनम्) वनं बहूदकं विद्यते यस्मिँस्तम्। वनमित्युदकना०। निघं० १। १२। (शतद्वसुम्) शतान्यसंख्यातानि वसूनि यस्मिंस्तम्। अत्र पृषोदरादित्वात् पूर्वपदस्य तुगागमः। (श्रुष्टीवानम्) श्रुष्टीः क्षिप्रगतीर्वनति भाजयति यस्तम्। श्रुष्टीति क्षिप्रना०। वनधातोर्ण्यन्तादच्। (वरिवोधाम्) वरिवः परिचरणं सुखसेवनं दधाति येन तम् (अभि) (प्रयः) प्रीणाति यः सः। औणादिकोऽन् प्रत्ययः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    पूर्वस्मान् मन्त्रादश्विनेत्यनुवर्त्तते। प्रयतमानैर्विद्वद्भिः शिल्पिभिर्यदीष्येत तर्हि ईदृशो रथो निर्मातुं शक्येत ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर स्त्री-पुरुष कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्ते, यह उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    हे समस्त गुणों में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! (प्रयः) प्रीति करनेवाला मैं (जीवसे) जीवने के लिये (वाम्) तुम दोनों का (पुरुमायम्) बहुत बुद्धि से बनाया हुआ (जीराश्वम्) जिससे प्राणधारी जीवों को प्राप्त होता वा उनको इकट्ठा करता (यज्ञियम्) जो यज्ञ के देश को जाने योग्य (सहस्रकेतुम्) जिसमें सहस्रों झंडी लगी हों (शतद्वसुम्) सैकड़ों प्रकार के धन (वनिनम्) और बहुत जल विद्यमान हों (श्रुष्टीवानम्) जो शीघ्रचालियों को चलता हुआ (मनोजुवम्) मन के समान वेगवाला (वरिवोधाम्) जिससे मनुष्य सुख सेवन को धारण करता (रथम्) उस मनोहर विमान आदि यान की (अभ्याहुवे) सब प्रकार प्रशंसा करता हूँ ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पिछले सूक्त के अन्तिम मन्त्र से (अश्विना) इस पद की अनुवृत्ति आती है। अच्छा यत्न करते हुए विद्वान् शिल्पी जनों ने जो चाहा हो तो जैसा कि सब गुणों से युक्त विमान आदि रथ इस मन्त्र में वर्णन किया वैसा बन सके ॥ १ ॥

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    विषय

    अद्भुत शरीर - रथ

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपके (रथम्) = इस शरीर - रथ को , अर्थात् जिस शरीर में प्राण साधना चलती है , और इस प्राणसाधना के कारण यह शरीर प्राणापानों का ही कहलाता है , (जीवसे) = उत्कृष्ट जीवन के लिए (आ हुवे) = पुकारता हूँ । मैं चाहता हूँ कि मुझे प्राणापानों का वह शरीररूप रथ प्राप्त हो जो [क] (पुरुमायम्) = [बह्वाश्चर्ययुक्तम् - सा०] अनेक आश्चर्यकारी रचनाओं से युक्त है अथवा बहुत माया - प्रज्ञावाला है , [ख] (मनोजुवम्) = मन के वेगवाला है , जिसमें मन बिल्कुल अकाम होकर निष्क्रिय व जड़ नहीं हो गया है , अपितु , जिसमें मन में शतशः उत्तम संकल्प उठते हैं , [ग] (जीराश्वम्) = जवन व वेग से युक्त इन्द्रियाश्वोंवाला है , [घ] (यज्ञियम्) = जो यज्ञात्मक उत्तम कर्मों का साधन बनता है , (सहस्रकेतुम्) = आनन्दयुक्त [स+हस्] व अपनीत रोगोंवाला [कित रोगापनयने] है , [च] (वनिनम्) = प्रभु - सम्भजन की वृत्तिवाला है , [छ] (शतद्वसुम्) = सौ - के - सौ वर्षपर्यन्त निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों [वसुओं] से सम्पन्न है - सौ वर्ष तक जिस शरीर में किसी प्रकार की कमी नहीं आती , [ज] (श्रुष्टीवानम्) = [सुखवन्तम्] जो सुख देनेवाला है , [झ] (वरिवोधाम्) = उचित सम्पत्ति का धारण करनेवाला है [ज] (प्रयः अभि) = अन्त तक पाचन के ठीक रहने से जो अन्न की [प्रयस् - Food] ओर चलनेवाला है । पाचनशक्ति के ठीक न होने पर अन्न के प्रति अरुचि हो जाती है और शरीर में क्षीणता आ जाती है । स्वास्थ्य के कारण यह आनन्द [प्रयस् - Delight] की ओर अग्रसर होता है और साथ ही त्याग की वृत्तिवाला [प्रयस् - Sacrifice] बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा शरीररूप रथ मन्त्रवर्णित दस बातों से युक्त हो ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! मैं ( वां ) आप दोनों के ( पुरुमायं ) अधिक बुद्धि से बनाये गये, बहुतसी आश्चर्यकारी घटनाओं को करने वाले अद्भुत, ( मनोजुवं ) मन के समान वेग से जाने वाले, ( जीराश्वं ) अति वेगवान् अश्व से युक्त, ( यज्ञियं ) यज्ञ योग्य देश में जाने वाले, ( सहस्रकेतुम् ) सहस्रों ध्वजा से युक्त, ( वनिनं ) सेवन करने योग्य ऐश्वर्यों से पूर्ण, ( शतद्वसुम् ) सैकड़ों ऐश्वर्यो वाले, ( श्रुष्टीवानम् ) शीघ्र गतियों से जाने वाले, ( वरिवोधाम् ) धनैश्वर्य के धारण और प्रदान करने वाले, ( रथम् ) रथ के समान इस रमण करने के साधन स्वरूप देह का ( प्रयः अभि ) उत्कृष्ट गमन को लक्ष्य करके ( हुवे ) वर्णन करता हूं । ( २ ) देहपक्ष में––यह देह ( पुरुमायम् ) रचना में बहुत आश्चर्यकारी रचनाओं से पूर्ण है । ( मनोजुवम् ) मन की प्रेरणा से चलने वाला है । (जीराश्वम्) जीव ही इसमें अश्व अर्थात् भोक्ता रूप से विराजने वाला है । ( यज्ञियम् ) यज्ञ अर्थात् उपासना करने योग्य परमेश्वर के भजन करने के लिये बना है । (३) अथवा—यह देह यज्ञ अर्थात् परस्पर सुसंगत अंगों से बना है, वा यज्ञ, अर्थात् पञ्चाहुति द्वारा निर्मित है । और (जीवसे) पूर्ण जीवन भोगने के लिये मैं ( हुवे ) उसे स्वीकार या धारण करता हूं। और यह रथ रूप देह ( सहस्रकेतुम् ) अनेक ज्ञान करने वाले ज्ञान-तन्तुओं या ज्ञान-साधनों से युक्त है । ( वनिनम् ) नाना भोग योग्य सामर्थ्यों से या भोक्ता आत्मा और इन्द्रियों से सम्पन्न है। ( शतद्वसुम् ) सौ बरस तक वास करने योग्य है ( श्रुष्टीवानम् ) वह शीघ्र गतियों से युक्त या अन्न का भोक्ता या सुखों से पूर्ण है । ( वरिवोधाम् ) सेवन करने योग्य ऐश्वर्यों को धारण करने वाला है। वह ( प्रयः अभि ) अन्न के आश्रय पर रहता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ६ निचृज्जगती । ३,७, १७ जगती । ८ विराड् जगती । २, ५, ९ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा, प्रजा, संन्यासी महात्म्यांच्या विद्या विचाराचे आचरण सांगितल्यामुळे या सूक्तच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात मागच्या सूक्ताच्या अंतिम मंत्राने (अश्विना) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. चांगला प्रयत्न करणाऱ्या विद्वान कारागिरांनी इच्छा असेल त्याप्रमाणे सर्व गुणांनी युक्त विमान इत्यादी रथाचे या मंत्रात वर्णन केलेले आहे. तसे ते बनविता येऊ शकते. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, leading lights of nature and humanity, for the sake of a long life and full living and for the desired aim of life, I invoke you and admire your chariot wonderfully made, quick as mind, drawn by swift horses, a vehicle for yajnic action, distinguished by a thousand flags, beautiful and luxurious, giver of a hundred kinds of wealth, superfast and a very home and treasure of divine bliss. (I love it for a heavenly ride for this existential journey.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men and women behave is taught further in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men and women, I who try to please all by my respectful treatment, invoke you in order to support my life, your wonderful and charming car in the form of an aircraft etc. swift as mind, manufactured with much wisdom and keen intelligence, going to the place of Yajna approaching noble living beings, with thousand banners and hundred treasures, containing arrangements for much water, abundantly yielding delight and leading to quick movement. I appreciate it very highly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पुरुमायम्) पुर्व्या मायया प्रज्ञया निष्पादितम् = Manufactured with much wisdom and intelligence. मायेतिप्रज्ञानाम (निघ० ३,९) (वनितम्) वनं बृहदुदकं विद्यते यस्मिन् तम् वनमित्युदक नाम (निघ० १.१२) (श्रुष्टीवनम्) श्रुष्टौः क्षिप्रगती: वनति भाजयति यः तम् । श्रुष्टीति क्षिप्रनाम | वनधातोर्ण्यन्तादच् । = Leading to quick movement. (प्रयः ) प्रोणाति यः सः । औणादिकोऽन् प्रत्ययः = He who pleases or satisfies all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If industrious artists desire, they can certainly manufacture such a wonderful and charming vehicle in the form of an aero-plane etc.

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