ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 120/ मन्त्र 2
ऋषिः - उशिक्पुत्रः कक्षीवान्
देवता - अश्विनौ
छन्दः - भुरिग्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वि॒द्वांसा॒विद्दुर॑: पृच्छे॒दवि॑द्वानि॒त्थाप॑रो अचे॒ताः। नू चि॒न्नु मर्ते॒ अक्रौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्वांसौ॑ । इत् । दुरः॑ । पृ॒च्छे॒त् । अवि॑द्वान् । इ॒त्था । अप॑रः । अ॒चे॒ताः । नु । चि॒त् । नु । मर्ते॑ । अक्रौ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्वांसाविद्दुर: पृच्छेदविद्वानित्थापरो अचेताः। नू चिन्नु मर्ते अक्रौ ॥
स्वर रहित पद पाठविद्वांसौ। इत्। दुरः। पृच्छेत्। अविद्वान्। इत्था। अपरः। अचेताः। नु। चित्। नु। मर्ते। अक्रौ ॥ १.१२०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 120; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथाऽचेता अविद्वान् विद्वांसौ दुरः पृच्छेदित्थाऽपरो विद्वानिदेव नु पृच्छेत्। अक्रौ मर्त्ते चिदपि नु पृच्छेद्यतोऽयमालस्यं त्यक्त्वा पुरुषार्थे प्रवर्त्तेत ॥ २ ॥
पदार्थः
(विद्वांसौ) सकलविद्यायुक्तौ (इत्) एव (दुरः) शत्रून् हिंसितुं हृदयहिंसकान् प्रश्नान् वा (पृच्छेत्) (अविद्वान्) विद्याहीनो भृत्योऽन्यो वा (इत्था) इत्थम् (अपरः) अन्यः (अचेताः) ज्ञानरहितः (नु) सद्यः (चित्) अपि (नु) शीघ्रम् (मर्त्ते) मनुष्ये (अक्रौ) अकर्त्तरि। अत्र नञ्युपपदात् कृधातोः इक्कृषादिभ्य इति बहुलवचनात् कर्त्तरीक् ॥ २ ॥
भावार्थः
यथा विद्वांसो विदुषां संमत्या वर्त्तेरँस्तथाऽन्येऽपि वर्त्तन्ताम्। सदैव विदुषः प्रति पृष्ट्वा सत्यासत्यनिर्णयं कृत्वा सत्यमाचरेयुरसत्यं च परित्यजेयुः। नात्र केनचित्कदाचिदालस्यं कर्त्तव्यम्। कुतो नापृष्ट्वा विजानातीत्यतः। नैव केनचिदविदुषामुपदेशे विश्वसितव्यम् ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे (अचेताः) अज्ञान (अविद्वान्) मूर्ख (विद्वांसौ) दो विद्यावान् पण्डितजनों को (दुरः) शत्रुओं के मारने वा मन को अत्यन्त क्लेश देनेहारी बातों को (पृच्छेत्) पूछे (इत्था) ऐसे (अपरः) और विद्वान् महात्मा अपने ढङ्ग से (इत्) ही (नु) शीघ्र पूछे (अक्रौ) नहीं करनेवाले (मर्त्ते) मनुष्य के निमित्त (चित्) भी (नु) शीघ्र पूछे जिससे यह आलस्य को छोड़ के पुरुषार्थ में प्रवृत्त हो ॥ २ ॥
भावार्थ
जैसे विद्वान् विद्वानों की सम्मति से वर्त्ताव वर्त्ते वैसे और भी वर्त्तें। सदैव विद्वानों को पूछकर सत्य और असत्य का निर्णय कर आचरण करें और झूठ को त्याग करें। इस बात में किसी को कभी आलस्य न करना चाहिये क्योंकि विना पूछे कोई नहीं जानता है, इससे किसी को मूर्खों के उपदेश पर विश्वास न लाना चाहिये ॥ २ ॥
विषय
वासनाओं से अनाक्रान्त
पदार्थ
१. (इत्था) = इस प्रकार (अचेताः) = प्राणापान - साधना के लाभों को अथवा प्राणाराधन के प्रकार को न जाननेवाला (अविद्वान्) = अज्ञ पुरुष (विद्वांसौ इत्) = ज्ञान देनेवाले अश्विदेवों से ही (दुरः) = प्राणाराधन के उपायों को [द्वारों को] (पृच्छेत्) = पूछे - जानने की इच्छा करे । (अपरः) = अश्विदेवों से भिन्न सर्वज्ञ भी अज्ञ ही होता है , अतः अश्विदेवों से ही पूछे । प्राणापान से ही प्राणाराधन के उपायों को पूछने का अभिप्राय यह है कि हम प्राणायाम में प्रवृत्त हों , अगला - अगला मार्ग स्वयं दिखेगा । जैसे वेद पढ़ने से वेद का अभिप्राय स्पष्ट होने लगता है , उसी प्रकार प्राणसाधना में लगने से अगला - अगला लक्ष्य स्वयं दिखने लगता है , २. ये प्राणापान (नू चित्) = शीघ्र ही (नु) = अब (मर्ते) = मनुष्य में (अक्रौ) = शत्रुओं से अनाक्रान्त होते हैं । प्राणसाधना करने से काम - क्रोधादि शत्रुओं का हमपर आक्रमण नहीं हो पाता । प्राणायाम हमें वासना - विजय के लिए सक्षम बनाता है । प्राणसाधना का सर्वमहान् लाभ यही है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम प्रारम्भ करने पर अगला मार्ग स्वयं दिखता है । ‘योगेन योगो ज्ञातव्यः’ - इस उक्ति का यही भाव है । प्राणसाधना का सर्वमहान् लाभ यह है कि साधक पर वासनाओं का आक्रमण नहीं हो पाता ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( अविद्वान् ) अविद्वान्, विद्याहीन, या शूद्र भृत्य ( विद्वांसौ इत् ) विद्वान्, जानकार स्त्री पुरुषों या मालिक मालकिनी से जाकर ( दुरः पृच्छेत् ) जिस प्रकार बड़े महल के दरवाज़े पूछता है उसी प्रकार ना जानकार मूर्ख पुरुष ( विद्वांसौ इत् ) विद्वान् ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त होकर उन से ही इस देहबन्धन या संसारबन्धन से मुक्त होने के ( दुरः ) द्वारों को ( पृच्छेत् ) पूछे इसी प्रकार सेनाध्यक्षों से ही नाजानकार नवसिखुआ दुर्ग और व्यूहों के द्वारों को या शत्रु के वारण करने के उपायों को पूछे । ( इत्था ) इस प्रकार से ( अपरः ) जो पर या उत्कृष्ट नहीं, वह जीव पर अर्थात् उत्कृष्ट परमेश्वर की अपेक्षा अपर है । और आत्मा की अपेक्षा अपर देहादि भी (अचेताः) चेतना और ज्ञान से रहित है । ( नू चित् नु ) ठीक इसी प्रकार (अक्रौ मर्त्ते ) क्रिया में अकुशल पुरुषसमूह में भी समझना चाहिये कि क्रिया का जानने वाला पुरुष विद्वान् और अकुशल अविद्वान् होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिक्पुत्रः कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, १२ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २ भुरिग्गायत्री । १० गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ३ स्वराट् ककुबुष्णिक् । ५ आर्ष्युष्णिक् । ६ विराडार्ष्युष्णिक् । ८ भुरिगुष्णिक् । ४ आर्ष्यनुष्टुप् । ७ स्वराडार्ष्यनुष्टुप् । ९ भुरिगनुष्टुप् । द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे विद्वानांनी विद्वानांच्या संमतीने वागावे तसेच इतरांनीही वागावे. सदैव विद्वानांना विचारून सत्य व असत्याचा निर्णय घ्यावा व त्यानुसार आचरण करावे. खोट्या गोष्टींचा त्याग करावा. या बाबतीत कुणीही आळस करता कामा नये. कारण विचारल्याशिवाय कोणीही काही जाणत नाही. त्यासाठी कुणीही मूर्खांच्या उपदेशावर विश्वास ठेवू नये. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the ignorant man and the imperceptive unintelligent person ask the Ashvins, men of intelligence and wisdom, the way forward for progress. Similarly another, the intelligent and the learned person too in his own way should ask the way forward for further advancement. In any case, let them ask the way out and onward for the sake of the man who would otherwise stand still doing nothing, in the state of doubt and inaction.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
An ignorant person devoid of wisdom should put questions to a learned wise man regarding destroying enemies (internal and external) learned person should also put such questions to him in order to gain more knowledge. Question should also be put to a lazy person so that he may give up indolence and may become industrious.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दुरः) शत्रून हिसितुं हृदयहिंसकान् प्रश्नान् वा । = Questions about destroying the internal or external enemies or piercing the heart of the wicked.) (अकौ) अकर्तरि । अत्र नञुपपदात् कृधातोः इष् कृपादिभ्य इति बहुलवचनात् कर्तरि इक् || = A man who is not active or does not discharge his duties well.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As learned persons behave or act upon the advice of the wise, so should others also do. Having put questions to learned persons and having ascertained what is truth and what is un-truth, men should act righteously and should give up falsehood. None should show laziness in this, because none can attain knowledge without putting questions None should believe in the teaching given by to the wise. ignorant or un-educated persons.
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