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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 11
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    स नो॒ नेदि॑ष्ठं॒ ददृ॑शान॒ आ भ॒राग्ने॑ दे॒वेभि॒: सच॑नाः सुचे॒तुना॑ म॒हो रा॒यः सु॑चे॒तुना॑। महि॑ शविष्ठ नस्कृधि सं॒चक्षे॑ भु॒जे अ॒स्यै। महि॑ स्तो॒तृभ्यो॑ मघवन्त्सु॒वीर्यं॒ मथी॑रु॒ग्रो न शव॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । नेदि॑ष्ठम् । ददृ॑शानः । आ । भ॒र॒ । अग्ने॑ । दे॒वेभिः॑ । सऽच॑नाः । सुऽचे॒तुना॑ । म॒हः । र॒यः । सु॒ऽचे॒तुना॑ । महि॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । नः॒ । कृ॒धि॒ । स॒म्ऽचक्षे॑ । भु॒जे । अ॒स्यै । महि॑ । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । सु॒ऽवीर्य॑म् । मथीः॑ । उ॒ग्रः । न । शव॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो नेदिष्ठं ददृशान आ भराग्ने देवेभि: सचनाः सुचेतुना महो रायः सुचेतुना। महि शविष्ठ नस्कृधि संचक्षे भुजे अस्यै। महि स्तोतृभ्यो मघवन्त्सुवीर्यं मथीरुग्रो न शवसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। नेदिष्ठम्। ददृशानः। आ। भर। अग्ने। देवेभिः। सऽचनाः। सुऽचेतुना। महः। रायः। सुऽचेतुना। महि। शविष्ठ। नः। कृधि। सम्ऽचक्षे। भुजे। अस्यै। महि। स्तोतृऽभ्यः। मघऽवन्। सुऽवीर्यम्। मथीः। उग्रः। न। शवसा ॥ १.१२७.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्यार्थिभिः किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे मघवन् शविष्ठाग्ने स ददृशानस्त्वं सुचेतुना देवेभिश्च सह नो महः सचना राय आभरास्यै प्रजायै संचक्षे भुजे शवसोग्रो न मथीस्त्वं नेदिष्ठं महि सुवीर्यमाभराऽनेन सुचेतुना महि स्तोतृभ्यो नोऽस्मान्विद्यावतः कृधि ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (सः) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (नेदिष्ठम्) अतिशयेनान्तिकम् (ददृशानः) दृष्टवान् सन् (आ) समन्तात् (भर) धर (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (सचनाः) समवेतुं योग्याः (सुचेतुना) सुष्ठुविज्ञात्रा (महः) महतः (रायः) धनानि (सुचेतुना) सुष्ठु चेतयित्रा (महि) महत् (शविष्ठ) अतिशयेन बलवान् प्राप्तविद्य (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (संचक्षे) सम्यगाख्यानाय (भुजे) पालनाय (अस्यै) प्रजायै (महि) महद्भ्यः (स्तोतृभ्यः) (मघवन्) पूजितधनयुक्त (सुवीर्यम्) शोभनं पराक्रमम् (मथीः) या दुष्टान् मथ्नाति सः (उग्रः) तेजस्वी (न) इव (शवसा) बलेन ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। विद्यार्थिभिराप्तानध्यापकान् संप्रार्थ्य संसेव्य पूर्णा विद्याः प्रापणीयाः। येन राजप्रजाजना विद्यावन्तो भूत्वा सततं धर्ममाचरेयुः ॥ ११ ॥इति सप्तविंशत्युत्तरं शततमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्यार्थियों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त (शविष्ठ) अतीव बलवान् विद्यादि गुणों को पाये हुए (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान (सः) वह (ददृशानः) देखे हुए विद्वान् ! आप (सुचेतुना) सुन्दर समझनेवाले और (देवेभिः) विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों के लिये (महः) बहुत (सचनाः) सम्बन्ध करने योग्य (रायः) धनों को (आ, भर) अच्छे प्रकार धारण करें (अस्यै) इस प्रजा के लिये (संचक्षे) उत्तमता में कहने उपदेश देने और (भुजे) इसको पालना करने के लिये (शवसा) अपने पराक्रम से (उग्रः) प्रचण्ड प्रतापवान् (न) के समान (मथीः) दुष्टों को मथनेवाले आप (नेदिष्ठम्) अत्यन्त समीप (महि) बहुत (सुवीर्यम्) उत्तम पराक्रम को अच्छे प्रकार धारण करो और इस (सुचेतुना) सुन्दर ज्ञान देनेवाले गुण से (महि) अधिकता से जैसे हो वैसे (स्तोतृभ्यः) स्तुति प्रशंसा करनेवालों से (नः) हम लोगों को विद्यावान् (कृधि) करो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्यार्थियों को चाहिये कि सकल शास्त्र पढ़े हुए धार्मिक विद्वानों की प्रार्थना और सेवा कर पूरी विद्याओं को पावें, जिससे राजा और प्रजाजन विद्यावान् होकर निरन्तर धर्म का आचरण करें ॥ ११ ॥इस सूक्त में विद्वान् और राजधर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जाननी चाहिये ॥ यह एकसौ सत्ताईसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    स्वस्थ दृष्टिकोण व स्वस्थ शरीर

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमारे (नेदिष्ठम्) = अत्यन्त समीप [हृदयदेश में ही] (ददृशानः) = दिखते हुए (देवेभिः सचनाः) = देवों के साथ [पच् समवाये] समवेत होते हुए (सुचेतना) = उत्तम ज्ञान से (आभर) = हमें सर्वथा पूरित कीजिए । हम आपकी उपासना करें, आपको हृदयदेश में देखने का प्रयत्न करें । अपने अन्दर दिव्यगुणों को बढ़ाने के लिए यत्नशील हों, क्योंकि आप दिव्य गुणवालों में ही निवास करते हैं । आप (सुचेतुना) = उत्तम ज्ञान के साथ (महः रायः) = महनीय धनों को भी हमें (आभर) = प्राप्त कराइए । आपकी कृपा से हम ज्ञानपूर्वक उत्तम मार्गों से चलते हुए प्रशस्त धनों का अर्जन करनेवाले बनें । २. है (शविष्ठ) = अत्यन्त शक्तिसम्पन्न प्रभो! आप (नः) = हमारे लिए (महि) = [मह पूजायाम्] पूजा की भावना को भी (कृधि) = कीजिए । कुछ ऐसी प्रेरणा दीजिए कि हम आपको भूल न जाएँ । आपका स्मरण करते हुए (संचक्षे) = संसार को सम्यक् रूप में देखने वाले हों । हम स्वस्थ दृष्टिकोण से संसार को देखनेवाले हों, विकृत दृष्टिकोण से नहीं और (अस्यै भुजे) = इस आपके दिये हुए शरीर का ठीक से पालन करनेवाले हों । प्रभु पूजक का दृष्टिकोण स्वस्थ होता है, वह शरीर को अस्वस्थ नहीं होने देता ३. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (स्तोतृभ्यः) = आपके स्तोताओं के लिए (महि सुवीर्यम्) = आदरणीय व महान् उत्तम शक्ति प्राप्त होती है । वस्तुतः ये उपासक आपकी शक्ति से ही शक्तिसम्पन्न बनते हैं । वस्तुतः इनके हृदयों में निवास करते हुए (उग्रः न) = अत्यन्त तेजस्वी के समान आप ही (शवसा) = अपनी शक्ति से (मथीः) = इन उपासकों के कामादि शत्रुओं का संहार करते हैं । आपकी शक्ति से शक्तिसम्पन्न बनकर ही ये उपासक काम-क्रोध को जीत पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु को हृदय में देखने के लिए देव बनने का यत्न करें । प्रभु हमें ज्ञानधन व पूजा की भावना प्राप्त कराएँगे । हम स्वस्थ दृष्टिकोण वाले बनकर शरीर को भी स्वस्थ रखेंगे और प्रभु शक्ति से सम्पन्न होकर काम - क्रोध का संहार करने वाले होंगे ।

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    विषय

    दम्पति विश्पति का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवान् प्रकाशवान् ! स्वामिन् ! नायक ! प्रभो ! ( सः ) वह तू ( नः ) हमारे ( नेदिष्ठं ) अति समीप (ददृशानः) समस्त संसार को देखता हुआ, सबका साक्षी, अध्यक्ष, सर्वद्रष्टा होकर ( सुचेतुना ) उत्तम ज्ञानवान् नायक पुरुषों सहित ( देवेभिः ) विद्वान् तथा विजयशील पुरुषों सहित हमें ( सचनाः ) अन्नादि समृद्धि से युक्त एवं संघ बनाकर रहने और प्राप्त करने योग्य ( रायः ) ऐश्वर्य (आभर) सब तरफ से हमें प्राप्त करा । हे ( शविष्ठ ) बलवानों से सब से अधिक बलवान् ! तू ( सं-चक्षे ) अच्छी प्रकार से उपदेश करने और अच्छी प्रकार देखने ज्ञान करने के लिये और ( अस्यै ) इस प्रजा को ( भुजे ) पालन और भोग करने के लिये ( नः ) हमें ( सुवीर्यम् ) उत्तम बलवीर्य भी ( सुचेतुना ) उत्तम ज्ञानवान् पुरुष द्वारा ( कृधि ) प्रदान कर । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! तू ! ( शवसा ) बल से ( उग्रः ) अति वेगवान् प्रचण्ड वायु या विद्युत् के समान ( मथीः ) शत्रुओं का मथन करने वाला होकर ( स्तोतृभ्यः ) स्तुतिकर्त्ता, उपासक विद्वान् पुरुषों को (महि सुवीर्यम्) बड़ा उत्तम बल (कृधि) प्रदान कर । इति त्रयोदशो वर्गः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्यार्थ्यांनी संपूर्ण शास्त्र शिकलेल्या धार्मिक विद्वानांची प्रार्थना व सेवा करून पूर्ण विद्या प्राप्त करावी. ज्यामुळे राजा व प्रजा यांनी विद्यायुक्त होऊन निरंतर धर्माचे आचरण करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Lord, Agni, watching, guiding and guarding us at the closest, with all the brilliant powers of nature and humanity, bear and bring us, most kindly and graciously, great, valuable and lasting wealths of the world. Mightiest Lord, make us great for the experience and enjoyment of this earth. Lord of wealth, power and grandeur, bring us, admirers and worshippers, great valour and honour, and as a fierce disciplinarian chum us to the essence of magnanimity and majesty of life that existence is in reality.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should students do is told in the eleventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    o learned person shining like the fire, possessing admirable wealth (of wisdom etc.) and most mighty, being seen and close by us along with highly educated person and a good teacher, bestow upon us abundant desirable riches with benign intent. Render us illustrious and virile, so that we may behold and enjoy this earth and grant greatness with excellent progeny to us who praise thee and make us full of knowledge and wisdom. Thou art destroyer of foes like a fierce giant in strength.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुचेतुना) १ सुष्ठ विज्ञात्रा = By a scholar knowing well. २ सुष्ठु चेतयित्रा = By a good teacher. (सचना:) समवेतुं योग्या: = Desirable or worthy of acquisition. चिती-संज्ञाने षच-समवाये ) Tr. This hymn is connected with the previous hymn as there is the mention of duties of the learned persons and the rulers. Here ends the commentary on the 127th hymn and thirteenth Verga of the Rigveda Samhita

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The students should try to get thorough knowledge of all sciences by requesting and serving absolutely truthful and learned persons, so that the rulers and their subjects observe Dharma or righteousness in their dealings, being full of knowledge and wisdom.

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