ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 9
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - तिस्त्रो देव्यः- सरस्वतीळाभारत्यः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इळा॒ सर॑स्वती म॒ही ति॒स्रो दे॒वीर्म॑यो॒भुवः॑। ब॒र्हिः सी॑दन्त्व॒स्रिधः॑॥
स्वर सहित पद पाठइळा॑ । सर॑स्वती । म॒ही । ति॒स्रः । दे॒वीः । म॒यः॒ऽभुवः॑ । ब॒र्हिः । सी॒द॒न्तु॒ । अ॒स्त्रिधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥
स्वर रहित पद पाठइळा। सरस्वती। मही। तिस्रः। देवीः। मयःऽभुवः। बर्हिः। सीदन्तु। अस्रिधः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र त्रिधा क्रिया प्रयोज्येत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे विद्वांसो भवन्त इडा सरस्वती मह्यस्रिधो मयोभुवस्तिस्रो देवीर्बर्हिः प्रतिगृहादिकं सीदन्तु सादयन्तु॥९॥
पदार्थः
(इडा) ईड्यते स्तूयतेऽनया सा वाणी। इडेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) अत्र ‘इड’ धातोः कर्मणि बाहुलकादौणादिकोऽन्प्रत्ययो ह्रस्वत्वं च। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति गुणादेशाभावश्च। अत्र सायणाचार्य्येण टापं चैव हलन्तानामित्यशास्त्रीयवचनस्वीकारादशुद्धमेवोक्तम्। (सरस्वती) सरो बहुविधं विज्ञानं विद्यते यस्याः सा। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (मही) महती पूज्या नीतिर्भूमिर्वा (तिस्रः) त्रिप्रकारकाः (देवीः) देदीप्यमाना दिव्यगुणहेतवः। अत्र वा छन्दसि इति जसः पूर्वसवर्णत्वम्। (मयोभुवः) या मयः सुखं भावयन्ति ताः। मय इति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (बर्हिः) प्रतिगृहादिकम्। बर्हिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.२) तस्मादत्र ज्ञानार्थो गृह्यते। (सीदन्तु) सादयन्तु। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (अस्रिधः) अहिंसनीयः॥९॥
भावार्थः
मनुष्यैरिडापठनपाठनप्रेरिका सरस्वती ज्ञानप्रकाशिकोपदेशाख्या मही सर्वथा पूज्या कुतर्केण ह्यखण्डनीया सर्वसुखा नीतिश्चेति त्रिविधा सदा स्वीकार्य्या, यतः खल्वविद्यानाशो विद्याप्रकाशश्च भवेत्॥९॥
हिन्दी (6)
विषय
वहाँ तीन प्रकार की क्रिया का प्रयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे विद्वानो ! तुम लोग एक (इडा) जिससे स्तुति होती, दूसरी (सरस्वती) जो अनेक प्रकार विज्ञान का हेतु, और तीसरी (मही) बड़ों में बड़ी पूजनीय नीति है, वह (अस्रिधः) हिंसारहित और (मयोभुवः) सुखों का सम्पादन करानेवाली (देवी) प्रकाशवान् तथा दिव्य गुणों को सिद्ध कराने में हेतु जो (तिस्रः) तीन प्रकार की वाणी है, उसको (बर्हिः) घर-घर के प्रति (सीदन्तु) यथावत् प्रकाशित करो॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को इडा जो कि पठनपाठन की प्रेरणा देनेहारी, सरस्वती जो उपदेशरूप ज्ञान का प्रकाश करने, और मही जो सब प्रकार से प्रशंसा करने योग्य है, ये तीनों वाणी कुतर्क से खण्डन करने योग्य नहीं हैं, तथा सब सुख के लिये तीनों प्रकार की वाणी सदैव स्वीकार करनी चाहिये, जिससे निश्चलता से अविद्या का नाश हो॥९॥
पदार्थ
पदार्थ = ( इडा ) = वाणी ( सरस्वती ) = विद्या ( मही ) = मातृभूमि ( मयोभुव: ) = कल्याण करनेवाली और ( अस्त्रिधः ) = कभी हानि न पहुँचानेवाली ( तिस्रः देवी: ) = तीन देवियाँ ( बर्हिः ) = हमारे अन्त:करण में ( सीदन्तु ) = विराजमान हों ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु से प्रार्थना है कि हे दयामय परमात्मन्! हमारे देशवासियों में इन तीन देवियों की भक्ति हो । १. इडा अपनी मातृभाषा-भाषियों के साथ मातृभाषा में बातचीत करना । २. लोक, परलोक, जड़, चेतन, पुण्य, पाप, हित, अहित, कर्तव्य, अकर्तव्य को बतानेवाली सच्ची विद्या सरस्वती । ३. मही अपनी जन्मभूमि के वासी अपने बान्धवों से प्रेम। ये तीन देवियाँ मनुष्य को सदा सुख देनेवाली हैं, कभी हानि करनेवाली नहीं हैं। हर एक मनुष्य के अन्त:करण में, तीनों देवियों के प्रति भक्ति होनी चाहिए। जिस देश के वासियों की इन तीन देवियों में प्रीति होगी, वह देश उन्नत होगा। जिस देश में इन तीन देवियों में भक्ति नहीं है, जिनका अपनी भाषा और विद्या से प्रेम नहीं, अपनी मातृभूमि और मातृभूमि में बसनेवालों से प्रेम नहीं, वह देश अवनति के गढ़े में पड़ा रहेगा।
विषय
वहाँ तीन प्रकार की क्रिया का प्रयोग करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वांसः भवन्त इडा सरस्वती मही अस्रिधः मयोभुवः तिस्रो देवी बर्हिः प्रति गृहादिकम् सीदन्तु (सादयन्तु)॥९॥
पदार्थ
हे (विद्वांसः)=विद्वान् लोगों! (भवन्तः)=आप, (इडा) ईड्यते स्तूयतेऽनया सा वाणी=ऐसी वाणी जिससे स्तुति होती है, (सरस्वती) सरो बहुविधं विज्ञानं विद्यते यस्याः सा=जो अनेक प्रकार से विज्ञान का हेतु है, (मही) महती पूज्या नीतिर्भूमिर्वा=बड़ों में बड़ी पूजनीय या जो नीति का आधार है, (अस्रिधः) अहिंसनीयः=हिंसा न करने योग्य, (मयोभुवः) या मयः सुखं भावयन्ति ताः=सुखों का सम्पादन कराने वाली, (तिस्रः) त्रिप्रकारकाः=तीन प्रकार की वाणी, (देवीः) देदीप्यमाना दिव्यगुणहेतवः=प्रकाशमान और दिव्यगुणों की कारण, (बर्हिः) प्रतिगृहादिकम्=घर-घर आदि में, (सीदन्तु-सादयन्तु)=आसीन हो॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को इडा जो कि पठन-पाठन की प्रेरणा देने वाली है, सरस्वती जो उपदेशरूप ज्ञान का प्रकाश करने वाली है और मही जो सब प्रकार से प्रशंसा करने योग्य है। ये तीनों वाणी कुतर्क से खण्डन करने योग्य नहीं हैं। इसलिये सब सुख के लिये तीनों प्रकार की वाणी सदैव स्वीकार करनी चाहिये, जिससे निश्चलता से अविद्या का नाश हो॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वांसः) विद्वान् लोगों! (भवन्तः) आप (इडा) ऐसी वाणी जिससे स्तुति होती है (सरस्वती) जो अनेक प्रकार से विशिष्ट ज्ञान का हेतु है (मही) बड़ों में बड़ी पूजनीय या जो नीति का आधार है और (अस्रिधः) हिंसा न करने योग्य है। (मयोभुवः) सुखों का सम्पादन कराने वाली (तिस्रः) तीन प्रकार की वाणी (देवीः) प्रकाशमान और दिव्यगुणों की कारण होती है। (बर्हिः) यह वाणी प्रत्येक घर आदि में (सीदन्तु) आसीन हो॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इडा) ईड्यते स्तूयतेऽनया सा वाणी। इडेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) अत्र 'इड' धातोः कर्मणि बाहुलकादौणादिकोऽन्प्रत्ययो ह्रस्वत्वं च। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति गुणादेशाभावश्च। अत्र सायणाचार्य्येण टापं चैव हलन्तानामित्यशास्त्रीयवचनस्वीकारादशुद्धमेवोक्तम्। (सरस्वती) सरो बहुविधं विज्ञानं विद्यते यस्याः सा। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (मही) महती पूज्या नीतिर्भूमिर्वा (तिस्रः) त्रिप्रकारकाः (देवीः) देदीप्यमाना दिव्यगुणहेतवः। अत्र वा छन्दसि इति जसः पूर्वसवर्णत्वम्। (मयोभुवः) या मयः सुखं भावयन्ति ताः। मय इति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (बर्हिः) प्रतिगृहादिकम्। बर्हिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.२) तस्मादत्र ज्ञानार्थो गृह्यते। (सीदन्तु) सादयन्तु। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (अस्रिधः) अहिंसनीयः॥९॥
विषयः- तत्र त्रिधा क्रिया प्रयोज्येत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे विद्वांसो भवन्त इडा सरस्वती मह्यस्रिधो मयोभुवस्तिस्रो देवीर्बर्हिः प्रतिगृहादिकं सीदन्तु सादयन्तु॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरिडापठनपाठनप्रेरिका सरस्वती ज्ञानप्रकाशिकोपदेशाख्या मही सर्वथा पूज्या कुतर्केण ह्यखण्डनीया सर्वसुखा नीतिश्चेति त्रिविधा सदा स्वीकार्य्या, यतः खल्वविद्यानाशो विद्याप्रकाशश्च भवेत्॥९॥
विषय
इडा - सरस्वती - मही
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्राणसाधना करने पर हमारी वाणी मधुर होती है । यही 'मधुरवाणी' प्रस्तुत मन्त्र में 'इडा' देवी है । प्राणसाधना का द्वितीय लाभ गतमन्त्र के अनुसार यह है कि हम कवि , तत्त्वद्रष्टा , तीव्र बुद्धिवाले बनते हैं । यही 'सरस्वती' की आराधना है । प्राणसाधना का तृतीय लाभ 'प्रभु से मेल - यज्ञ' है । यही 'मही' [मह पूजायाम्] - परमेश्वर की उपासना है । इस 'मही' का ही अन्य मन्त्रों में 'भारती' नाम है , भारती की भावना है - "धारण - पोषण' करना । वस्तुतः लोकों का भरण व पोषण , लोकहित में लगे रहना ही परमेश्वर की सच्ची उपासना है । ये (तिस्त्रः देवीः) - तीनों दिव्य भावनाएँ (मयोभुवः) - हमारे कल्याण का भावन करनेवाली हैं । (इडा) - मधुरवाणी हमारे सामाजिक कष्टों को दूर करती है , (सरस्वती) - तत्त्वज्ञान हमारे लिए प्राकृतिक पदार्थों को सुखद बना देता है तथा (मही) - प्रभुपूजा हमें (अमितौजा) - अनन्त शक्तिवाला बनाकर कल्याणयुक्त करती है ।
२. ये तीनों दिव्य भावनाएँ (अस्त्रिधः) क्षय व शोषण से रहित हुई - हुई (बर्हिः सीदन्तु) - मेरे हृदय में आसीन हों , अर्थात् मैं इनको न भूलूँ और ये मुझसे उपासित होकर मुझे क्षय व शोषण से बचाएँ । इनकी उपासना मुझे सब प्रकार से अहिंसित करे ।
भावार्थ
भावार्थ - मैं 'इडा , सरस्वती व मही' को अपने हृदय में स्थान दूं । ये मेरा कल्याण करनेवाली हों ।
विषय
तीन देवियां
शब्दार्थ
(इळा) मातृभाषा (सरस्वती) मातृसभ्यता एवं संस्कृति और (मही) मातृभूमि (तिस्रः देवी:) ये तीनों देवियाँ (मयोभुव:) कल्याण करनेवाली हैं, अतः ये तीनों (अस्त्रधि:) सम्मान एवं आदरपूर्वक, अहिंसित होती हुई (बर्हि:) अन्तःकरण में, हृदय-मन्दिर में (सीदन्तु) बैठें, विराजमान हों
भावार्थ
प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृभाषा में श्रद्धा रखनी चाहिए, अपनी भाषा का आदर करना चाहिए। हम अन्य देशों की भाषाएँ भी सीखें परन्तु अपनी देश-भाषा को प्रमुख गौरव और महत्त्व प्रदान करें। पहले अपनी भाषा का ज्ञान कर फिर अन्य भाषाओं का अभ्यास करें; अपनी भाषा की उपेक्षा और पराई भाषा से प्यार करना घृणित है। हम अपना सारा कार्य अपनी मातृभाषा में ही करें, इसी में हमारा गौरव है । प्रत्येक मनुष्य को अपनी सभ्यता और संस्कृति से प्यार होना चाहिए । हमारा रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, सभी-कुछ अपनी सभ्यता और संस्कृति के अनुकूल होना चाहिए । आज कुछ व्यक्ति पाश्चात्यों का अनुकरण करने में अपना गौरव समझते हैं, यह उनकी भूल है। भारतीय संस्कृति किसी भी संस्कृति से हीन नहीं है, अपितु बढ़-चढ़कर है। भारतीय संस्कृति तो संसार की सर्वप्रथम संस्कृति है । यजुर्वेद ७ । १४ में कहा है ‘सा प्रथमा संस्कृतिविश्ववारा ।’ हमें अपनी संस्कृति और सभ्यता पर गर्व होना चाहिए । " प्रत्येक मनुष्य को अपनी मातृ-भूमि से प्रेम होना चाहिए। अपनी मातृभूमि के लिए मर-मिटने की भावना होनी चाहिए । ये तीनों देवियाँ हमारा कल्याण करनेवाली हैं, अतः हमारे हृदयों में इनके लिए सम्मान होना चाहिए ।
विषय
तीन देवियों का विवरण ।
भावार्थ
( इळा ) इला, ( सरस्वती ) सरस्वती और ( मही ) मही ( तिस्रः देवीः ) तीनों देवियें ( मयो भुवः ) सुख उत्पन्न करने हारी हैं । वे तीनों ( अस्त्रिधः ) अक्षय, अविनाशिनी, अहिंसनीय होकर ( बर्हिः ) आसन और गृह में ( सीदन्तु ) विराजें। स्तुति करने और कथन करने से ‘इला’ वाणी है । दीप्ति करने से प्रकाशक होने से ‘इणा’ वाणी और विद्युत् है । सहशयन और वीजवपन से स्त्री और भूमि दोनों ‘इडा’ हैं । गौ और अन्न दोनों का वाचक ‘इडा’ शब्द पढ़ा है। उनकी स्वामिनी भी ‘इडा’ है । पशु, अन्न, श्रद्धा, सत्यधारणावती बुद्धि या मनुष्य की पत्नी और समस्त विश्वरचक कारणों की स्वामिनी प्रकृति भी इडा और इरा नाम से कहाती हैं ।
टिप्पणी
‘इळा’—ईड्यते स्तूयते अनेन इति सा वाणी । ईळतेरन् औणादिकः । ह्रस्वत्वं गुणाभावश्छान्दसः । दया० । निशादिवत् टापं चैव हलन्तानामितीलेष्टाप् इति सायणः । ईडतेरिन्धतेश्चाकर्त्तरि कारके घङ् । ईडेर्ह्रस्वत्वम् । इन्धे र्नकारलोपो डकारो गुणाभावश्चेति देवर जो यज्वा । इण् गतावस्माद्वा डः । इडा गौः । यद्वा इल स्वप्नक्षेपणयोः अस्मादिगुपधलक्षणः कः । सुप्यतेऽस्यां क्षिप्यते वा बीजादिकमिति पृथ्वी, स्त्री वा । इला इत्यन्ननाम गो नाम च । अर्शादित्वादच् । अन्नवती, गोमती । इयम् पृथिवी वा इडा । कौ० ९ । २ ॥ इडाहि गौः । श० २ । ३४ । ३४ ॥ पशवो वा इडा । श० १ । ८ । १ । २२ ॥ अन्नं वा इळा । ऐ० २ । २५ ॥ श्रद्धा इडा । श० १२ । २ । ७ । २० ॥ इडा वै मानवी यज्ञानुकाशिनी आसीत् । तै० १ । १४ । ४॥ इरा पत्नी विश्वसृजाम् । तै० । ३ । १२ । ९ । ५ ॥ ‘सरस्वती’ — वाक् वै सरस्वती । श० २ । ५ । ४ । ६ ॥ सा वाक् ऊर्ध्वा उदातनोत् यथा अपांधारा संततम् । तां० २० । १४ । २ ॥ योषा वै सरस्वती वृषा पूषा । श० २ । ५ । १ । १२॥ सरस्वतीति तद् द्वितीयम् वज्ररूपम् । कौ० १२ । २ ॥ सर: सरस्वती चेति वाङ् नामनी । सरति जानाति सर्वं । ज्ञायते वा विद्वद्भिः गच्छत्येव वाहूत इति सरः वाग् । सरः इत्युदक नाम च सर्तेस्तद्वनी । वृष्ट्यधि देवतात्वादुदुकवती हि मध्यमिका वाक् । इति देवराजः । सर इति प्रशस्तम् ज्ञानं तद्वती इति दया० । भारती—एष (अग्निः) उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा विभर्ति तस्माद्वेवाह भरत इति । श० १ । ४ । २ ॥ २ ॥ अग्निर्भरतः । सः प्राणो भूत्वा हवींषि विभर्ति। तदीया भारती । अथवा भरत इति ऋत्विङ् नाम । तदीया स्तुतिसाधनत्वात् । बिभर्ति जगद् वर्षप्रदानेन स्वाभिधेयं वा भ्रियते प्राणिभिः व्यवहारसाधनत्वेन इति देव०। मही – इयमेव मही । इयम् वा आदितिर्मही । श० ६ ॥ ५ ॥ १० ॥ पृथिवी नाम, वाङ् नाम, गो नाम च । तीनों नाम वाणीवाचक हैं फलतः इडा = ऋग् । सरस्वती = यजुः । मही = साम । तीनों नाम पृथ्वीवाचक हैं । इला = अन्नदात्री, सरस्वती जलदात्री, मही= उत्तम रत्न आदि दात्री । गृहस्थपक्ष में—इला = कुमारी सरस्वती = गृहपत्नी । मही = वृद्धा । राज्यपक्ष में—इला = भूमि-प्रबन्ध कर्त्री सभा । सरस्वती = विद्वत्सभा, मही = पूज्य शिक्षक समिति । इलादिशब्दाभिधेया बह्निमूर्त्तयस्तिस्रो देव्यः इति सायणः । तीनों प्रकार के विद्वान् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी ‘इडा’ जी अध्ययन अध्यापनाला प्रेरणा देणारी, ‘सरस्वती’ जी उपदेश करून ज्ञानाचा प्रकाश करणारी व ‘मही’ जी सर्व प्रकारे प्रशंसनीय आहे या तिन्ही वाणी कुतर्काने खंडन करण्यायोग्य नाहीत. सर्व सुखांसाठी तीन प्रकारच्या वाणींचा सदैव स्वीकार केला पाहिजे. ज्यामुळे निश्चितपणे अविद्येचा नाश व विद्येचा प्रकाश होईल. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I invoke three divine graces, brilliant and blissful, Ila, eternal speech of divine omniscience, Sarasvati, universal speech of divine revelation, and Mahi, realised speech of earthly communication. May the three come and sanctify the holy seats of our yajna here and now without delay, without fail.
Subject of the mantra
There three types of action should be used, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvāṃsaḥ)=Scholars, (bhavantaḥ)=You people, (iḍā)=Speech with which we praise, (sarasvatī)= one who is the medium of special knowledge in many ways, (mahī)=praiseworthy in great people, in other words base of value system, (asridhaḥ)=must be faced by non-violence, (mayobhuvaḥ)=master of pleasures, (tisraḥ)=speech of three types, (devīḥ)=cause of divine virtues, (barhiḥ)=home, ᾱdi=et cetera, (sīdantu)=get located.
English Translation (K.K.V.)
O scholars! You people speak like leading to praise, which is the medium of special knowledge in many ways, is venerable among elders, in other words is base of the value system, must be faced by non-violence and is master of pleasures. Such speech of three types must be located in every home.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Iḍā, which inspires people to study, Sarasvatī, who is the promulgator of knowledge in the form of preaching, and Mahī who is worthy of praise in all respects. These three speeches are not refutable by reasoning. Therefore, for all happiness, all three types of speeches should always be accepted, so that nescience is destroyed peacefully.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, you should try to establish three divine virtues at every house (1) An admirable speech which is used for study and teaching (2) the speech possessing various kinds of knowledge and expressed in the form of sermons and (3) `policy which is to be admired and revered everywhere and which can not be condemned by wrong arguments or fallacies and which causes happiness to all. This speech of three kinds should be accepted by all, so that there may be the diffusion of knowledge and elimination of ignorance.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इडा) ईड्यते स्तूयतेऽनया सा वाणी-पठनपाठनप्रेरिका, इडेतिवाङ्नामसु पठितम् (निघ० १.११ ) (सरस्वती ) सरोबहुविधं विज्ञानं विद्यते यस्याः सा भूम्न्यथें मतुप् ज्ञानप्रकाशिकोपदेशाख्या | (मही) सर्वथा पूज्या कुतर्केण ह्यखण्डनीया सर्वसुखा नीतिः।
Translator's Notes
Besides the above beautiful interpretation given by Rishi Dayananda the word सरस्वती may be taken for culture इडा for speech and महि for earth or land. Thus from the social or national point of view, the Mantra enjoins up on all people to have love for the good culture, speech and the motherland. These three should be treated as devis or divine, to be always borne in mind
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