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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अवि॑न्दद्दि॒वो निहि॑तं॒ गुहा॑ नि॒धिं वेर्न गर्भं॒ परि॑वीत॒मश्म॑न्यन॒न्ते अ॒न्तरश्म॑नि। व्र॒जं व॒ज्री गवा॑मिव॒ सिषा॑स॒न्नङ्गि॑रस्तमः। अपा॑वृणो॒दिष॒ इन्द्र॒: परी॑वृता॒ द्वार॒ इष॒: परी॑वृताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवि॑न्दत् । दि॒वः । निऽहि॑तम् । गुहा॑ । नि॒धि॑म् । वेः । न । गर्भ॑म् । परि॑ऽवीतम् । अश्म॑नि । अ॒न॒न्ते । अ॒न्तः । अश्म॑नि । व्र॒जम् । व॒ज्री । गवा॑म्ऽइव । सिसा॑सन् । अङ्गि॑रःऽतमः । अप॑ । अ॒वृ॒णो॒त् । इषः॑ । इन्द्रः॑ । परि॑ऽवृताः । द्वारः॑ । इषः॑ । परि॑ऽवृताः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अविन्दद्दिवो निहितं गुहा निधिं वेर्न गर्भं परिवीतमश्मन्यनन्ते अन्तरश्मनि। व्रजं वज्री गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तमः। अपावृणोदिष इन्द्र: परीवृता द्वार इष: परीवृताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अविन्दत्। दिवः। निऽहितम्। गुहा। निधिम्। वेः। न। गर्भम्। परिऽवीतम्। अश्मनि। अनन्ते। अन्तः। अश्मनि। व्रजम्। वज्री। गवाम्ऽइव। सिसासन्। अङ्गिरःऽतमः। अप। अवृणोत्। इषः। इन्द्रः। परिऽवृताः। द्वारः। इषः। परिऽवृताः ॥ १.१३०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के परमात्मानं ज्ञातुं शक्नुवन्तीत्याह ।

    अन्वयः

    यो वज्री व्रज्रं गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तम इन्द्र इषः परीवृता इव परीवृता इषो द्वारश्चापावृणोदनन्तेऽश्मन्यश्मन्यन्तः परिवीतं वेर्गर्भं न गुहा निहितं निधिं परमात्मानं दिवोऽविन्दत्सोऽतुलं सुखमाप्नोति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अविन्दत्) प्राप्नोति (दिवः) विज्ञानप्रकाशात् (निहितम्) स्थितम् (गुहा) गुहायां बुद्धौ (निधिम्) निधीयन्ते पदार्था यस्मिँस्तम् (वेः) पक्षिणः (न) इव (गर्भम्) (परिवीतम्) परितः सर्वतो वीतं व्याप्तं कमनीयं च जलम् (अश्मनि) मेघमण्डले (अनन्ते) देशकालवस्त्वपरिछिन्ने (अन्तः) मध्ये (अश्मनि) मेघे (व्रजम्) व्रजन्ति गावो यस्मिन्, तम् (वज्री) वज्रो दण्डः शासनार्थो यस्य सः (गवामिव) (सिषासन्) ताडयितुं दण्डयितुमिच्छन् (अङ्गिरस्तमः) अतिप्रशस्तः (अप) (अवृणोत्) वृणोति (इषः) एष्टव्या रथ्याः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्यः (परीवृताः) परितोऽन्धकारेणावृताः (द्वारः) द्वाराणि (इषा) (परीवृताः) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये योगाङ्गधर्मविद्यासत्सङ्गानुष्ठानेन स्वात्मनि स्थितं परमात्मानं विजानीयुस्ते सूर्यस्तम इव स्वसङ्गिनामविद्यां निवार्य विद्याप्रकाशं जनयित्वा सर्वान् मोक्षमार्गे प्रवर्त्याऽऽनन्दितान् कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन परमात्मा को जान सकते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (वज्री) शासना के लिये दण्ड धारण किये हुए (व्रजं, गवामिव) जैसे गौओं के समूह गोशाला में गमन करते जाते-आते वैसे (सिषासन्) जनों को ताड़ना देने अर्थात् दण्ड देने की इच्छा करता हुआ अथवा जैसे (अङ्गिरस्तमः) अति श्रेष्ठ (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्य (इषः) इच्छा करने योग्य (परीवृताः) अन्धकार से ढँपी हुई वीथियों को खोले वैसे (परीवृताः) ढपी हुई (इषः) इच्छाओं और (द्वारः) द्वारों को (अपावृणोत्) खोले तथा (अनन्ते) देश, काल, वस्तु भेद से न प्रतीत होते हुए (अश्मनि) आकाश में (अश्मनि) वर्त्तमान मेघ के (अन्तः) बीच (परिवीतम्) सब ओर से व्याप्त और अति मनोहर जल वा (वेः) पक्षी के (गर्भम्) गर्भ के (न) समान (गुहा) बुद्धि में (निहितम्) स्थित (निधिम्) जिसमें निरन्तर पदार्थ धरे जायें, उस निधिरूप परमात्मा को (दिवः) विज्ञान के प्रकाश से (अविदन्त्) प्राप्त होता है, वह अतुल सुख को प्राप्त होता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो योग के अङ्ग, धर्म, विद्या और सत्सङ्ग के अनुष्ठान से अपनी आत्मा में स्थित परमात्मा को जानें, वे सूर्य जैसे अन्धकार को वैसे अपने सङ्गियों की अविद्या छुड़ा विद्या के प्रकाश को उत्पन्न कर सबको मोक्षमार्ग में प्रवृत्त कराके उन्हें आनन्दित कर सकते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रभु - प्रेरणा के पालन से स्वर्ग

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार सोम - रक्षण से विज्ञानमयकोश को ज्ञान के ऐश्वर्य से पूर्ण करनेवाला (दिवः) = ज्ञानीपुरुष (गुहा निहितम्) = हृदयरूप गुहा में स्थापित (निधिम्) = ऐश्वर्यभूत उस प्रभु को (अविन्दत्) = प्राप्त करता है । प्रभु हृदय में स्थित हैं, यही सर्वत्र विद्यमान प्रभु का सर्वोत्कृष्ट निवास स्थान है । यहीं जीव अपने उस सच्चे मित्र का दर्शन करता है । वे प्रभु (वेः) = इस ज्ञान व कर्मरूप दो पक्षोंवाले पक्षिरूप जीव के (गर्भं न) = गर्भ के समान हैं, जीव के अन्दर उसी प्रकार स्थित हैं जैसे गर्भ माता में स्थित होता है । वे प्रभु (अश्मनि) = इस पत्थर-तुल्य दृढ़ शरीर में [अश्मा भवतु नस्तनूः] (परिवीतम्) = चारों ओर से वेष्टित हैं । इस (अनन्ते) = न जाने कब से चले आ रहे (अश्मनि अन्तः) = पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर में वे प्रभु विद्यमान हैं । यहीं तो हम उस प्रभु का दर्शन कर पाएँगे । २. इस प्रभु के दर्शन के लिए ही (वज्री) = क्रियाशीलतारूप वज़ को हाथ में धारण करनेवाला जीव गवां व्रज इव - गौओं के समूह की भाँति इन्द्रियों के समूह को (सिषासन्) = प्राप्त करने की कामनावाला होता है । इन्द्रियों को वश में करके ही तो यह प्रभु-दर्शन कर पाएगा । इन्द्रियों को वश में करनेवाला यह (अङ्गिरस्तमः) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में अधिक-से-अधिक रसवाला होता है । शरीर के स्वस्थ होने से इसके सब अङ्ग बड़े सबल हो जाते हैं । ३. यह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरु (परीवृताः इषः) = राग-द्वेष आदि मलों के कारण आज तक की हुई हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणाओं को (अपावृणोत्) = राग-द्वेषरूप मल के हटाने से अपावृत कर [खोल] देता है । (इषः) = प्रेरणाओं को तो अपावृत करता ही है, इन प्रेरणाओं को अपावृत करने के साथ (द्वारः) = स्वर्गद्वारों को उद्घाटित करनेवाला होता है । प्रभु-प्रेरणाओं के अनुसार चलकर स्वर्ग तो प्राप्त करेंगे ही ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष शरीरस्थ प्रभु का दर्शन करता है, जितेन्द्रिय बनकर वह प्रभु - प्रेरणा को सुनता है और स्वर्गद्वारों को खोलनेवाला होता है ।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अश्मनि परवीतम् ) पर्वतों में खूब सुरक्षित ( वेः गर्भं न ) पक्षिणी के गर्भ अण्डे आदि को जिस प्रकार पक्षी स्वयं, या शिकारी पुरुष खोज लेता या प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार ( अंगिरस्तमः ) अग्नि और सूर्य के समान अति अधिक तेजस्वी पुरुष ( अनन्ते अश्मनि अन्तः ) अनन्त शस्त्रास्त्र अर्थात् शत्रु सेना के बीच ( परिवीतम् ) छिपे हुए ( वेः गर्भं ) भोगयोग्य ऐश्वर्य के ग्रहण करने योग्य अंश को अपने ( अश्मनि ) शस्त्र बल पर और ( दिवः ) इस पृथिवी के ( गुहाः ) गुफा में छिपे ( निधिं ) खजाने को भी ( अविन्दत् ) प्राप्त करे । और वह ( गवाम् व्रजं इव ) गोओं के बाड़े या समूह को जिस प्रकार दण्डवान् गोपाल (सिषासन्) अपने वश करता है उसी प्रकार का श्रेष्ठ तेजस्वी पुरुष भी ( वज्री ) वज्र अर्थात् समस्त शस्त्रास्त्रबल, तलवार, और नाना आयुधों से सम्पन्न होकर ( गवां ब्रजम् ) भूमियों के समूह या गमन करने योग्य मुख्य मार्गों, नाकों को ( सिषासन् ) अपने अधीन दमन करने की इच्छा करे । ( परिवृताः इव द्वारः ) जिस प्रकार ऐश्वर्यवान् गृहपति अपनी इच्छानुकूल बनाये गये ढके हुए गृह के द्वारों को ( अप अवृणोत् ) खोलता है उसी प्रकार ( इन्द्रः ) राजा ( परीवृताः ) सब ओर से सुरक्षित ( द्वारः ) शत्रुओं को दूर से ही वारण कर देने वाली ( इषः ) प्रेरणा करने योग्य, आज्ञा के अधीन सेनाओं को ( अप अवृणोत ) खोले, उनको खुलकर शत्रु पर जा टूटने की आज्ञा दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे योगाचे अंग, धर्म, विद्या व सत्संगाच्या अनुष्ठानाने आपल्या आत्म्यात स्थित परमेश्वराला जाणतात. सूर्य जसा अंधकार दूर करतो तसे ते आपल्या संगतीतील लोकांची अविद्या दूर करून विद्येचा प्रकाश उत्पन्न करून सर्वांना मोक्षमार्गात प्रवृत्त करून त्यांना आनंदित करू शकतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, wielder of the thunderbolt of cosmic energy, most brilliant of the cosmic brilliancies, creates from the light of omniscience and divine omnipotence the wealth of existence hidden in the heart of mystery and opens out the materials and energies of cosmic evolution covered in the folds of sleep. He opens the closed doors of the wealth of existence as you deliver a foetus from the womb or an embryo from the egg or dig out a diamond from the heart of a stone lying in the depth of a mighty mountain or as the sun breaks open the waters of rain held in the cloud in the vast sky or as a cowherd opens the gates of a cow stall, wielding his staff to control their movements. Thus does Indra open the doors of the wealth of existence and control the order of evolution with his force of law.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who are able to attain God is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That person enjoys incomparable happiness and bliss who being full of splendor like the fire, finds God who is like the Great Treasure within the cave of the intellect with the light of wisdom. As a cowherd enters the cowshed with stick in hand and finds the cow he desires, as the sun that is most splendid illuminates with his rays the streets that were covered with darkness and opens the doors of the water in the cloud of the endless sky or hidden like the nestling of a bird in a rock, so is God found' by the Yogis. practicing Pranayama within the cave of their pure intellects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिव:) विज्ञानप्रकाशात् = By the light of Wisdom. (गुहा) गुहायां बुद्धौ = In the cave of the intellect. (निधिम्) निधीयन्ते पदार्था यस्मिन् तम् = Treasure. (अंगिरस्तमः) अतिप्रशस्तः = The Best, The most splendid.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There are several similes used in the Mantra. Those persons who know God pervading the soul within, with the observance of the parts of Yoga, Dharma (Righteousness) Vidya (Wisdom) and association with the enlightened holy persons, can make all men full of bliss, by dispelling the darkness of ignorance of those the come in contact with them like the sun dispelling all darkness and by giving them the light of wisdom.

    Translator's Notes

    अंगिरा उ ह्यग्नि: (शत० १. ४.१.२५ ) अंगिरा वाग्नि: (शत० ६.४.६.४ ) प्राणो वा अंगिरा: (शत० ६. १.२.२८, ५. २.३. ४) According to the above and many other passages found in the ancient Vedic Literature, Angiras means fire and Prana. Angirastama should mean therefore one who is very much like fire or one who is expert in the knowledge and practice of Pranayama. To take the word Angirastama as Proper noun (as many commentators of the East and the West have done) is simply ridiculous and absurd. Superlative degree like तमप can never be used for a proper noun. It is strange that even this simple rule of grammar has been ignored by many translators and commentators of the Vedas.

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