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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 132/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडत्यष्टिः स्वरः - मध्यमः

    यु॒वं तमि॑न्द्रापर्वता पुरो॒युधा॒ यो न॑: पृत॒न्यादप॒ तंत॒मिद्ध॑तं॒ वज्रे॑ण॒ तंत॒मिद्ध॑तम्। दू॒रे च॒त्ताय॑ च्छन्त्स॒द्गह॑नं॒ यदिन॑क्षत्। अ॒स्माकं॒ शत्रू॒न्परि॑ शूर वि॒श्वतो॑ द॒र्मा द॑र्षीष्ट वि॒श्वत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । तम् । इ॒न्द्रा॒प॒र्व॒ता॒ । पु॒रः॒ऽयुधा॑ । यः । नः॒ । पृ॒त॒न्यात् । अप॑ । तम्ऽत॑म् । इत् । ह॒त॒म् । वज्रे॑ण । तम्ऽत॑म् । इत् । ह॒त॒म् । दू॒रे । च॒त्ताय॑ । छ॒न्त्स॒त् । गह॑नम् । यत् । इन॑क्षत् । अ॒स्माक॑म् । शत्रू॑न् । परि॑ । शू॒र॒ । वि॒श्वतः॑ । द॒र्मा । द॒र्षी॒ष्ट॒ । वि॒श्वतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं तमिन्द्रापर्वता पुरोयुधा यो न: पृतन्यादप तंतमिद्धतं वज्रेण तंतमिद्धतम्। दूरे चत्ताय च्छन्त्सद्गहनं यदिनक्षत्। अस्माकं शत्रून्परि शूर विश्वतो दर्मा दर्षीष्ट विश्वत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। तम्। इन्द्रापर्वता। पुरःऽयुधा। यः। नः। पृतन्यात्। अप। तम्ऽतम्। इत्। हतम्। वज्रेण। तम्ऽतम्। इत्। हतम्। दूरे। चत्ताय। छन्त्सत्। गहनम्। यत्। इनक्षत्। अस्माकम्। शत्रून्। परि। शूर। विश्वतः। दर्मा। दर्षीष्ट। विश्वतः ॥ १.१३२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 132; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनाजनाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ।

    अन्वयः

    हे पुरोयुधेन्द्रापर्वता युवं यो नः पृतन्यात् तं वज्रेणाऽप हतं यथा युवां यं यं हतं तंतमिद्वयमपि हन्याम। यं यं वयं हन्याम तंतमिद् युवामप हतम्। हे शूर दर्मा त्वं यानस्माकं शत्रून्विश्वतो दर्षीष्ट तान्वयमपि विश्वतो परि दर्षीष्महि यच्चत्ताय गहनं दूरे छन्त्सत् शत्रुसेनामिनक्षत् तं युवां सततं रक्षतम् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (तम्) (इन्द्रापर्वता) सूर्यमेघाविव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ (पुरोयुधा) पुरः पूर्वं युध्येते यौ तौ (यः) (नः) अस्माकम् (पृतन्यात्) पृतनां सेनामिच्छेत् (अप) (तंतम्) (इत्) एव (हतम्) नाशयतम् (वज्रेण) तीव्रेण शस्त्राऽस्त्रेण (तंतम्) (इत्) एव (हतम्) (दूरे) (चत्ताय) याचिताय (छन्त्सत्) संवृणुयात् (गहनम्) कठिनम् (यत्) यः (इनक्षत्) व्याप्नुयात् (अस्माकम्) (शत्रून्) (परि) (शूर) (विश्वतः) सर्वतः (दर्मा) विदारकः सन् (दर्षीष्ट) दृणीहि (विश्वतः) अभितः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सेनापुरुषैर्ये सेनेशादीनां शत्रवस्सन्ति ते स्वेषामपि शत्रवो वेद्याः शत्रुभिः परस्परं भेदमप्राप्ताः संतः शत्रून् विदीर्य प्रजाः संरक्षन्तु ॥ ६ ॥अत्र राजधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति द्वात्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सेना जन परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पुरोयुधा) पहिले युद्ध करनेवाले (इन्द्रापर्वता) सूर्य्य और मेघ के समान वर्त्तमान सभा सेनाधीशो ! (युवम्) तुम (यः) जो (नः) हम लोगों की (पृतन्यात्) सेना को चाहे (तम्) उसको (वज्रेण) पैने तीक्ष्ण शस्त्र वा अस्त्र अर्थात् कलाकौशल से बने हुए शस्त्र से (अप, हतम्) अत्यन्त मारो, जैसे तुम दोनों जिस जिसको (हतम्) मारो (तं तम्) उस उसको (इत्) ही हम लोग भी मारें और जिस जिसको हम लोग मारें (तं तम्) उस उसको (इत्) ही तुम मारो। हे (शूर) शूरवीर ! (दर्मा) शत्रुओं को विदीर्ण करते हुए आप जिन (अस्माकम्) हमारे (शत्रून्) शत्रुओं को (विश्वतः) सब ओर से (दर्षीष्ट) दरो विदीर्ण करो, इनको हम लोग भी (विश्वतः) सब ओर से (परि) सब प्रकार दरें विदीर्ण करें, (यत्) जो (चत्ताय) माँगे हुए के लिये (गहनम्) कठिन व्यवहार को (दूरे) दूर में (छन्त्सत्) स्वीकार करे और शत्रुओं की सेना को (इनक्षत्) व्याप्त हो, उसकी तुम निरन्तर रक्षा करो ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सेना पुरुषों को जो सेनापति आदि पुरुषों के शत्रु हैं, वे अपने भी शत्रु जानने चाहिये, शत्रुओं से परस्पर फूट को न प्राप्त हुए धार्मिक जन उन शत्रुओं को विदीर्ण कर प्रजाजनों की रक्षा करें ॥ ६ ॥इस सूक्त में राजधर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ बत्तीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    इन्द्रापर्वता

    पदार्थ

    १. हे इन्द्रापर्वता ! इन्द्र 'सूर्य' का नाम है, पर्वत 'अश्मा' है। शरीर के द्युलोक 'मस्तिष्क' में ज्ञान सूर्य का उदय होता है तथा इस शरीर में यह स्थूल शरीर पत्थर के समान दृढ़ होना चाहिए (अश्मा भवतु नस्तनूः) । यह ज्ञानसूर्य और शरीर की दृढ़ता ही 'इन्द्रापर्वता' हैं। (युवम्) = तुम दोनों यो (नः पृतन्यात्) = जो हमपर आक्रमण करता है (तं पुरोयुधा) = उसके साथ आगे बढ़कर युद्ध करते हो और (तम् तम्) = उस-उसको, उस उस आक्रमणकारी को (इत्) = निश्चय से (हतम्) = नष्ट करते हो। वज्रेण क्रियाशीलतारूप वज्र से (तं तं इत् हतम्) = उस-उसको निश्चय से नष्ट करते हो। क्रियाशीलता ही कामादि संहार का महान् अस्त्र है। क्रियाशील पुरुष को वासनाएँ नहीं सता पातीं । २. यह इन्द्र - ज्ञानैश्वर्यवाला प्रभु (दूरे चत्ताय) = बहुत दूर भी चले गये, अर्थात् बहुत अधिक बढ़े हुए इन कामादि शत्रुओं को (छन्त्सत्) = जीतने की कामना करता है यत् जब इन कामादि में से कोई भी (गहनम्) = हृदयरूपी गहन प्रदेश को (इनक्षत्) = व्याप्त करता है। हृदय में प्रभु का वास है, वासनाएँ वहाँ आती हैं तो उस प्रभु की ज्ञानज्योति में भस्म हो जाती हैं । ३. इस प्रकार शूर हे शत्रुओं को (विश्वतः) = सब ओर से (परि दर्षीष्ट) = विदीर्ण कर देते हैं और सचमुच (विश्वतः) = सब ओर से विदीर्ण कर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान व शक्ति कामादि शत्रुओं को युद्ध में परास्त करते हैं। क्रियाशीलता से कामादि शत्रुओं का संहार होता है। प्रभु हमारे तीव्रतम शत्रुओं को शीर्ण कर देते हैं।

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    विषय

    पक्षान्तर में शुर पुरुषों, नायकों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्रा पर्वता ) सूर्य के समान शत्रुओं के नाश करने हारे ! हे (पर्वत) पर्वत के समान अचल, मेघ के समान शत्रुओं पर शस्त्रवर्षी ! ( यः ) जो ( नः ) हम पर ( पृतन्यात् ) सेना लेकर आक्रमण करे ( पुरोयुधा ) सबसे आगे जाकर युद्ध करने वाले होकर, अथवा पूर्व ही अपराधी को दण्डित करने हारे ( युवं ) आप दोनों ( वज्रेण ) वज्र से ( तम् तम् इत् ) उस उसको ही ( घज्रेण ) शस्त्र बल से ( हतम् ) मारो, दण्ड दो । ( यत् ) यदि वह शत्रु ( गहनं ) वन में, या संकट में ( इनक्षत् ) चला जाय और भाग जाय तो भी ( दूरे चत्ताय ) दूर चले गये शत्रु को भी ( छत्सत् ) पकड़ने की इच्छा करे । हे शूरवीर ! ( अस्माकं शत्रून् ) हमारे शत्रुओं को ( विश्वतः दर्मा ) सब तरफ से छेदता, बेंधता हुआ तू ( विश्वतः ) सब प्रकार से ( परि दर्षीष्ट) सब तरफ को काट छांट डाल, छिन्न भिन्न कर डाल । (२) इन्द्र आचार्य और पालन करने से पिता ‘पर्वत’ है । वे पूर्व अवस्था बाल्यकाल में बालक को ताड़ने से ‘पुरोयुध’ हैं । जो दुर्भाव हम पर आक्रमण करें उनको वे दोनों दण्ड दें, जो कोई छात्र कठिनाई में पड़ जाय तो दूर तक भटक गये को भी आचार्य प्रेम से उभार लेवे या ( दर्मा ) आदर योग्य वह हमारे अन्नः शत्रु, काम क्रोधादि को सब प्रकार से नाश करता रहे । इत्येकविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगतिशक्वरी । ४ निचृदष्टिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सेनेतील माणसांनी सेनापतीचे शत्रू आपले शत्रू समजले पाहिजेत. शत्रूतील परस्पर भेद जाणून धार्मिक लोकांनी शत्रूंचा नाश करून प्रजेचे रक्षण केले पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You both, Indra and the forces, like lightning and the mountain, fighting in the forefront, destroy with the thunderbolt everyone whosoever come to attack and fight us, see that they are destroyed first to the last, whosoever it be, even running far away for cover or even if one has gone deep into the bunker. O lord of valour and lustre, router of the deadly forces, destroy our enemies all round, crush them everywhere.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should soldiers deal with one another, is told in the sixth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the assembly and the Chief-Commander of the army, who are like the sun and the cloud and foremost in battles, slay every one who wants to bring his army against us (righteous persons); slay every such wicked adversary with the thunderbolt-like strong weapon, the strong weapon that is bent upon his destruction, pursue him, however far to whatever hinding place he may have fled. Thou hero destroyer of wicked persons, tearest our enemies, entirely topieces, the tearer of foes, the thunder-bolt or strong weapon sends them entirely as under.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( इन्द्रापर्वता ) सूर्य मेघाविव वर्तमानौ सभा सेनेशौ = The President of the Assembly and the Commander of an army who are like the Sun and the clouds. ( इनक्षत् ) व्याप्नुयात् = Pervades. ( दर्मा ) विदारक : सन् = Being tearer. पर्वत इति मेघनाम ( १.१० )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Soldiers should consider the enemies of the commanders of the army, as their own enemies. Men should protect the people, by tearing their enemies, not being turned away or disunited as the result of the foes' endeavor.

    Translator's Notes

    This hymn is connected with the previous hymn as there is the mention of the duties of the rulers and officers as in that hymn. Here ends the commentary on the 132nd Hymn and twenty first Verga of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.

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