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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 144 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 144/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒भीमृ॒तस्य॑ दो॒हना॑ अनूषत॒ योनौ॑ दे॒वस्य॒ सद॑ने॒ परी॑वृताः। अ॒पामु॒पस्थे॒ विभृ॑तो॒ यदाव॑स॒दध॑ स्व॒धा अ॑धय॒द्याभि॒रीय॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । ई॒म् । ऋ॒तस्य॑ । दो॒हनाः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ । योनौ॑ । दे॒वस्य॑ । सद॑ने । परि॑ऽवृताः । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । विऽभृ॑तः । यत् । आ । अव॑सत् । अध॑ । स्व॒धाः । अ॒ध॒य॒त् । याभिः॑ । ईय॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीमृतस्य दोहना अनूषत योनौ देवस्य सदने परीवृताः। अपामुपस्थे विभृतो यदावसदध स्वधा अधयद्याभिरीयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। ईम्। ऋतस्य। दोहनाः। अनूषत। योनौ। देवस्य। सदने। परिऽवृताः। अपाम्। उपऽस्थे। विऽभृतः। यत्। आ। अवसत्। अध। स्वधाः। अधयत्। याभिः। ईयते ॥ १.१४४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 144; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथार्तस्य दोहना परिवृता देवस्य सदने योनावभ्यनूषतयद्योवायुरपामुपस्थे विभृत आऽवसदध यथा विद्वान् स्वधा अधयद्याभिरीमीयते तथा तद्वद् यूयमपि वर्त्तध्वम् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (ईम्) सर्वतः (ऋतस्य) सत्यस्य विज्ञानस्य (दोहनाः) पूरकाः (अनूषत) स्तुवन्ति। अत्रान्येषामिति दैर्घ्यं व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (योनौ) गृहे (देवस्य) विदुषः (सदने) स्थाने (परिवृताः) आच्छादिता विदुष्यः (अपाम्) (उपस्थे) समीपे (विभृतः) विशेषेण धृतः (यत्) यः (आ) (अवसत्) वसेत् (अध) आनन्तर्ये (स्वधाः) उदकानि स्वधेत्युदकना०। निघं० १। १२। (अधयत्) पिबति (याभिः) अद्भिः (ईयते) गच्छति ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽकाशे जलं स्थिरीभूय ततो वर्षित्वा सर्वं जगत् पोषयति तथा विद्वान् चेतसि विद्यां स्थिरीकृत्य सर्वान् मनुष्यान् पोषयेत् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (ऋतस्य) सत्य विज्ञान के (दोहनाः) पूरे करनेवाली (परिवृताः) वस्त्रादि से ढपी हुई अर्थात् लज्जावती पण्डिता स्त्रियाँ (देवस्य) विद्वान् के (सदने) स्थान वा (योनौ) घर में (अध्यनूषत) सम्मुख में प्रशंसा करती हैं वा (यत्) जो वायु (अपाम्) जलों के (उपस्थे) समीप में (विभृतः) विशेषता से धारण किया हुआ (आवसत्) अच्छे प्रकार वसे (अध) इसके अनन्तर जैसे विद्वान् (स्वधाः) जलों को (अधयत्) पियें वा (याभिः) जिन क्रियाओं से (ईम्) सब ओर से उनको (ईयते) प्राप्त होता है वैसे उन सभों के समान तुम भी वर्त्तो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे आकाश में जल स्थिर हो और वहाँ से वर्ष कर समस्त जगत् को पुष्ट करता है, वैसे विद्वान् जन चित्त में विद्या को स्थिर कर सब मनुष्यों को पुष्ट करें ॥ २ ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे आकाशात जल स्थिर होते व तेथून पर्जन्यवृष्टी करून संपूर्ण जगाला पुष्ट करते तसे विद्वानांनी चित्तात विद्येला स्थिर करून सर्व माणसांना पुष्ट करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Waves of fragrance, streams of nectar, dynamics of Truth and divine Law, returning, abiding, enveloped in light, going round Agni in the seat and home of the lord, the sun, do sing in adoration of the Divine. They nestle in the womb of the divine mother of waters, creativity of cosmic energy there held by the mother, and then the streams of nectar are distilled and rain down again in showers for the life of the earth and her children, joining, again with agni, electric energy.

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