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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 146 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 146/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒दृ॒क्षेण्य॒: परि॒ काष्ठा॑सु॒ जेन्य॑ ई॒ळेन्यो॑ म॒हो अर्भा॑य जी॒वसे॑। पु॒रु॒त्रा यदभ॑व॒त्सूरहै॑भ्यो॒ गर्भे॑भ्यो म॒घवा॑ वि॒श्वद॑र्शतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒दृ॒क्षेण्यः॑ । परि॑ । काष्ठा॑सु । जेन्यः॑ । ई॒ळेन्यः॑ । म॒हः । अर्भा॑य । जी॒वसे॑ । पु॒रु॒ऽत्रा । यत् । अभ॑वत् । सूः । अह॑ । ए॒भ्यः॒ । गर्भे॑भ्यः । म॒घऽवा॑ । वि॒श्वऽद॑र्शतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिदृक्षेण्य: परि काष्ठासु जेन्य ईळेन्यो महो अर्भाय जीवसे। पुरुत्रा यदभवत्सूरहैभ्यो गर्भेभ्यो मघवा विश्वदर्शतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिदृक्षेण्यः। परि। काष्ठासु। जेन्यः। ईळेन्यः। महः। अर्भाय। जीवसे। पुरुऽत्रा। यत्। अभवत्। सूः। अह। एभ्यः। गर्भेभ्यः। मघऽवा। विश्वऽदर्शतः ॥ १.१४६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 146; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यद्योऽहैभ्यो गर्भेभ्यो विद्वत्तमेभ्यो महोऽर्भाय जीवसे पुरुत्रा मघवा विश्वदर्शतो दिदृक्षेण्यः काष्ठासु जेन्य ईळेन्यस्सूः पर्यभवत्स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (दिदृक्षेण्यः) द्रष्टुमिच्छयैष्टव्यः (परि) सर्वतः (काष्ठासु) दिक्षु (जेन्यः) जेतुं शीलः (ईळेन्यः) स्तोतुमर्हः (महः) महते (अर्भाय) अल्पाय (जीवसे) जीवितुम् (पुरुत्रा) पुरुषु बहुष्विति (यत्) यः (अभवत्) भवेत् (सूः) यः सूते सः (अह) विनिग्रहे (एभ्यः) (गर्भेभ्यः) गर्त्तुं स्तोतुं योग्येभ्यः (मघवा) परमपूजितधनयुक्तः (विश्वदर्शतः) विश्वैरखिलैर्विद्वद्भिर्द्रष्टुं योग्यः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये दिक्षु व्याप्तकीर्त्तयः शत्रूणां जेतारो विद्वत्तमेभ्यः प्राप्तविद्यासुशिक्षाः शुभगुणैर्दर्शनीया जनाः सन्ति ते जगन्मङ्गलाय प्रभवन्ति ॥ ५ ॥ अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन साकं सङ्गतिर्वेद्या ॥इति षट्चत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्) जो (अह) ही (एभ्यः) इन (गर्भेभ्यः) स्तुति करने के योग्य उत्तम विद्वानों से (महः) बहुत और (अर्भाय) अल्प (जीवसे) जीवन के लिये (पुरुत्रा) बहुतों में (मघवा) परम प्रतिष्ठित धनयुक्त (विश्वदर्शतः) समस्त विद्वानों से देखने के योग्य (दिदृक्षेण्यः) वा देखने की इच्छा से चाहने योग्य (काष्ठासु) दिशाओं में (जेन्यः) जीतनेवाला अर्थात् दिग्विजयी (ईळेन्यः) और स्तुति प्रशंसा करने के योग्य (सूः) सब ओर से उत्पन्न (परि, अभवत्) हो सो सबको सत्कार करने के योग्य है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो दिशाओं में व्याप्त कीर्त्ति अर्थात् दिग्विजयी, प्रसिद्ध शत्रुओं को जीतनेवाले, उत्तम विद्वानों से विद्या उत्तम शिक्षाओं को पाये हुए शुभ गुणों से दर्शनीय जन हैं, वे संसार के मङ्गल के लिये समर्थ होते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जानना चाहिये ॥यह एकसौ छयालीसवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यांची दिगदिगन्तरी कीर्ती पसरलेली आहे अर्थात् दिग्विजयी, शत्रूंना जिंकणारे, उत्तम विद्वानांकडून विद्या सुशिक्षण प्राप्त झालेले, शुभ गुणांनी दर्शनीय जन असतात ते जगाचे कल्याण करण्यास समर्थ असतात. ॥ ५ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, power of light and knowledge in life, so brilliant as to be admirable by the brilliant victorious all round in all directions, worthy of praise and reverence, life-giving to the small as well as to the great, abundantly creative and promotive to all these people and projects in the making, is the lord of wealth and power and universally admired and honourable.

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