ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 151/ मन्त्र 1
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मि॒त्रं न यं शिम्या॒ गोषु॑ ग॒व्यव॑: स्वा॒ध्यो॑ वि॒दथे॑ अ॒प्सु जीज॑नन्। अरे॑जेतां॒ रोद॑सी॒ पाज॑सा गि॒रा प्रति॑ प्रि॒यं य॑ज॒तं ज॒नुषा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रम् । न । यम् । शिम्या॑ । गोषु॑ । ग॒व्यवः॑ । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । वि॒दथे॑ । अ॒प्ऽसु । जीज॑नन् । अरे॑जेताम् । रोद॑सी॒ इति॑ । पाज॑सा । गि॒रा । प्रति॑ । प्रि॒यम् । य॒ज॒तम् । ज॒नुषा॑म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रं न यं शिम्या गोषु गव्यव: स्वाध्यो विदथे अप्सु जीजनन्। अरेजेतां रोदसी पाजसा गिरा प्रति प्रियं यजतं जनुषामव: ॥
स्वर रहित पद पाठमित्रम्। न। यम्। शिम्या। गोषु। गव्यवः। सुऽआध्यः। विदथे। अप्ऽसु। जीजनन्। अरेजेताम्। रोदसी इति। पाजसा। गिरा। प्रति। प्रियम्। यजतम्। जनुषाम्। अवः ॥ १.१५१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 151; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मित्रावरुणयोर्लक्षणविशेषानाह ।
अन्वयः
प्रियं यजतं यमग्निं जनुषामवः प्रति स्वाध्यो गोषु गव्यवो मित्रं न विदथे शिम्याऽप्सु जीजनन्तस्याग्नेः पाजसा गिरा रोदसी अरेजेताम् ॥ १ ॥
पदार्थः
(मित्रम्) सखायम् (न) इव (यम्) (शिम्या) कर्मणा। शिमीति कर्मना। निघं० २। १। (गोषु) धेनुषु (गव्यवः) गा इच्छवः (स्वाध्यः) सुष्ठु आधीर्येषान्ते (विदथे) यज्ञे (अप्सु) प्राणेषु (जीजनन्) जनयेयुः। अत्राडभावः। (अरेजेताम्) कम्पेताम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (पाजसा) बलेन (गिरा) सुशिक्षितया वाण्या (प्रति) (प्रियम्) यः प्रीणाति तम् (यजतम्) सङ्गन्तव्यम् (जनुषाम्) जनानाम् (अवः) रक्षणम् ॥ १ ॥
भावार्थः
ये विद्वांसः प्रजापालनमिच्छवस्ते मित्रभावं कृत्वा सर्वं जगत् स्वात्मवत् रक्षेयुः ॥ १ ॥
हिन्दी (1)
विषय
अब नव ऋचावाले एकसौ इक्कानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में मित्रावरुण के विशेष लक्षणों को कहते हैं ।
पदार्थ
(प्रियम्) जो प्रसन्न करता वा (यजतम्) सङ्ग करने योग्य (यम्) जिस अग्नि को (जनुषाम्) मनुष्यों के (अवः) रक्षा आदि के (प्रति) प्रति वा (स्वाध्यः) जिनकी उत्तम धीरबुद्धि वे (गोषु) गौओं में (गव्यवः) गौओं की इच्छा करनेवाले जन (मित्रं, न) मित्र के समान (विदथे) यज्ञ में (शिम्या) कर्म से (अप्सु) प्राणियों के प्राणों में (जीजनन्) उत्पन्न कराते अर्थात् उस यज्ञ कर्म द्वारा वर्षा और वर्षा से अन्न होते और अन्नों से प्राणियों के जठराग्नि को बढ़ाते हैं, उस अग्नि के (पाजसा) बल (गिरा) रूप उत्तम शिक्षित वाणी से (रोदसी) सूर्यमण्डल और पृथिवीमण्डल (अरेजेताम्) कम्पायमान होते हैं ॥ १ ॥
भावार्थ
जो विद्वान् प्रजापालना किया चाहते हैं, वे मित्रता कर समस्त जगत् की अपने आत्मा के समान रक्षा करें ॥ १ ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मित्र वरुणाचे लक्षण मित्र वरुण शब्दाने लक्षित अध्यापक व उपदेशक इत्यादींचे वर्णन केलेले आहे, त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
जे विद्वान प्रजापालन करू इच्छितात त्यांनी मित्रत्वाने संपूर्ण जगाचे रक्षण करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni is dear as a friend and adorable (since it is the vigour and vitality of life in the human personality, in the animal world and in the earth and the environment). Let the people dedicated to the welfare and protection of humanity, who love the wealth of cows and milk products, who want to preserve the earth and the environment, and who value the vitality of their sense and mind, light and develop Agni, as a dear adorable friend, with noble acts in yajna and corporate action to inspire vitality in the cows, in the pranic energies, in the mind and senses, and in the earth and environment. And then the heaven and earth would vibrate with life and joy by virtue of their holy voice and the power of their songs of adoration. (Let the voice resound on earth and songs rise to heaven).
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