ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 159/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
ते सू॒नव॒: स्वप॑सः सु॒दंस॑सो म॒ही ज॑ज्ञुर्मा॒तरा॑ पू॒र्वचि॑त्तये। स्था॒तुश्च॑ स॒त्यं जग॑तश्च॒ धर्म॑णि पु॒त्रस्य॑ पाथः प॒दमद्व॑याविनः ॥
स्वर सहित पद पाठते । सू॒नवः॑ । सु॒ऽअप॑सः । सु॒ऽदंस॑सः । म॒ही इति॑ । ज॒ज्ञुः॒ । मा॒तरा॑ । पू॒र्वऽचि॑त्तये । स्था॒तुः । च॒ । स॒त्यम् । जग॑तः । च॒ । धर्म॑णि । पु॒त्रस्य॑ । पाथः । प॒दम् । अद्व॑याविनः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते सूनव: स्वपसः सुदंससो मही जज्ञुर्मातरा पूर्वचित्तये। स्थातुश्च सत्यं जगतश्च धर्मणि पुत्रस्य पाथः पदमद्वयाविनः ॥
स्वर रहित पद पाठते। सूनवः। सुऽअपसः। सुऽदंससः। मही इति। जज्ञुः। मातरा। पूर्वऽचित्तये। स्थातुः। च। सत्यम्। जगतः। च। धर्मणि। पुत्रस्य। पाथः। पदम्। अद्वयाविनः ॥ १.१५९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 159; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये स्वपसः सुदंससः पूर्वचित्तये जज्ञुस्ते मही मातरा जानीयुः। हे पितरौ यौ युवां स्थातुश्च जगतश्च धर्मण्यद्वयाविनः पुत्रस्य सत्यं पदं पाथस्तौ सूनवः सततं सेवेरन् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(ते) (सूनवः) (स्वपसः) सुष्ठु अपांसि कर्म्माणि येभ्यस्ते (सुदंससः) शोभनानि दंसांसि कर्माणि व्यवहारेषु येषां ते (मही) महत्यौ (जज्ञुः) जायन्ते (मातरा) मान्यकारिण्यौ (पूर्वचित्तये) पूर्वा चासौ चित्तिश्चयनं च तस्यै (स्थातुः) अचरस्य (च) (सत्यम्) नाशरहितम् (जगतः) गच्छतः (च) (धर्म्मणि) साधर्म्ये (पुत्रस्य) सन्तानस्य (पाथः) रक्षथः (पदम्) प्राप्तव्यम् (अद्वयाविनः) न विद्यते द्वितीयो यस्मिँस्तस्य ॥ ३ ॥
भावार्थः
किं भूमिसूर्यौ सर्वेषां पालननिमित्ते न स्तः ? ये पितरश्चराचरस्य जगतो विज्ञानं पुत्रेभ्यो ग्राहयन्ति ते कृतकृत्या कुतो न स्युः ? ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (स्वपसः) सुन्दर कर्म और (सुदंससः) शोभन कर्मयुक्त व्यवहारवाले जन (पूर्वचित्तये) पूर्व पहिली जो चित्ति अर्थात् किन्हीं पदार्थों का इकट्ठा करना है उसके लिये (जज्ञुः) प्रसिद्ध होते हैं (ते) वे (महि) बड़ी (मातरा) मान करनेवाली माताओं को जानें। हे माता-पिताओ ! जो तुम (स्थातुः) स्थावर धर्मवाले (च) और (जगतः) जङ्गम जगत् के (च) भी (धर्मणि) साधर्म्य में (अद्वयाविनः) इकले (पुत्रस्य) पुत्र के (सत्यम्) सत्य (पदम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थ की (पाथः) रक्षा करते हो उनकी (सूनवः) पुत्र जन निरन्तर सेवा करें ॥ ३ ॥
भावार्थ
क्या भूमि और सूर्य सबके पालन के निमित्त नहीं हैं ? जो पिता-माता चराचर जगत् का विज्ञान पुत्रों के लिये ग्रहण कराते हैं, वे कृतकृत्य क्यों न हों ? ॥ ३ ॥
विषय
सत्यमार्ग
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार स्वस्थ मस्तिष्क व शरीर के द्वारा विशाल हृदय को प्राप्त करनेवाले (ते) = वे व्यक्ति ही (सूनवः) = प्रभु के सच्चे पुत्र होते हैं, (स्वपसः) = सदा उत्तम कर्म करनेवाले होते हैं (सुदंसस:) = शोभन दर्शन बनते हैं- दर्शनीय जीवनवाले होते हैं । २. ये व्यक्ति (पूर्वचित्तये) = उस सर्वप्रथम प्रभु के ज्ञान के लिए (मही) = पूजा की भावना से पूर्ण (मातरा) = मस्तिष्क व शरीर को (जज्ञुः) = जाननेवाले होते हैं। इनका मस्तिष्क व शरीर प्रभु-पूजन में प्रवृत्त होता है और इस पूजन के द्वारा ये प्रभु को जाननेवाले बनते हैं। ३. इस प्रकार के [मही, मातरा] पूजन की भावना से युक्त मस्तिष्क और शरीर (स्थातुः च जगतः च) = स्थावर व जंगम पदार्थों के- इस चराचर जगत् के (धर्मणि) = धारणात्मक कर्म में (अद्वयाविन:) = दो मार्गों पर न चलकर, दोनों अतियों [extremes] में न जाकर, मध्यमार्ग में चलनेवाले (पुत्रस्य) = [पुनाति त्रायते] अपने को पवित्र व रोगों से रक्षित बनानेवाले के (सत्यं पदम्) = सत्यमार्ग को (पाथः) = रक्षित करते हैं। 'यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा '– जो अधिक-से-अधिक प्राणियों का हित है, वही तो सत्य है। ये व्यक्ति अद्वयावी व पुत्र बनते हुए इस सत्य के मार्ग पर चलते हैं और चराचर जगत् का धारण करनेवाले होते हैं । ऐसे लोगों से ही वस्तुतः जगत् का धारण किया जाता है । = शरीर व मस्तिष्क को ठीक बनाकर हम प्रभु पूजन की वृत्तिवाले बनें और
भावार्थ
भावार्थ - लोक-कल्याणरूप सत्य में प्रवृत्त हों।
विषय
पुत्रों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
पुत्रों का कर्त्तव्य । ( ते ) वे ( सूनवः ) पुत्र जन (स्वपसः) उत्तम ज्ञान ( सुदंससः ) उत्तम कर्म और व्यवहार वाले होकर (पूर्वचित्तये ) सबसे पूर्व मान आदर करने के लिये ( मातरा ) माता पिता दोनों और ज्ञान कराने वाले आचार्यजनों को (मही) सबसे अधिक पूज्य ( जज्ञुः ) जानें । हे माता पिताओ ! आप दोनों ( स्थातुः ) स्थावर और ( जगतः च ) जंगम दोनों के ( धर्मणि ) धारण करने में ( अद्वयाविनः ) दोनों में सामर्थ्य से अधिक सूर्य के समान (अद्वयाविनः) मां बाप दोनों से भी गुणों में अधिक, अकेले (पुत्रस्य) पुत्र के ( पदम् ) स्थान का मार्ग का ( पाथः ) पालन करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः- १ विराट् जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ४ जगती च ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
भूमी व सूर्य सर्वांचे पालन करण्याचे निमित्त नाहीत काय? जे माता-पिता चराचर जगाचे विज्ञान पुत्रांना उपलब्ध करून देतात ते कृतकृत्य का असू नयेतः ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
They are the children, sons and daughters in reality, heroic, noble and graceful of action, who for the first, essential and absolute knowledge of prime importance, collect the knowledge of the great parents of the world of existence: Ishwar and Prakrti, sun and earth, and father and mother of this human birth of ours. O Parents, protect and bless the true and firm establishment of the child, free from duplicity and double dealing, in the Dharma of the static and dynamic world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The parents are compared with sun and moon.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The men should act on noble lines and conduct in order to acquire perfect knowledge. They should also know the attributes of the sun and earth which are like our father and mother. O parents! your sons should always serve you because you protect them and furnish true knowledge of the attributes of all objects, animate and inanimate, of your son. He is reported to be free from double dealing or crookedness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sun and the earth preserve and protect all. Similarly, the parents should be free from anxiety and be quite satisfied with the arrangements made for their children to seek knowledge of the whole world, animate and inanimate.
Foot Notes
(स्वपसः) सुष्ठु अपांसि कर्माणि येभ्य: = Men of good deeds. सुदंसस: = Men of noble conduct.
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