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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 173 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 173/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    गाय॒त्साम॑ नभ॒न्यं१॒॑ यथा॒ वेरर्चा॑म॒ तद्वा॑वृधा॒नं स्व॑र्वत्। गावो॑ धे॒नवो॑ ब॒र्हिष्यद॑ब्धा॒ आ यत्स॒द्मानं॑ दि॒व्यं विवा॑सान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गाय॑त् । साम॑ । न॒भ॒न्य॑म् । यथा॑ । वेः । अर्चा॑म । तत् । व॒वृ॒धा॒नम् । स्वः॑ऽवत् । गावः॑ । धे॒नवः॑ । ब॒र्हिषि॑ । अद॑ब्धाः । आ । यत् । स॒द्मान॑म् । दि॒व्यम् । विवा॑सान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गायत्साम नभन्यं१ यथा वेरर्चाम तद्वावृधानं स्वर्वत्। गावो धेनवो बर्हिष्यदब्धा आ यत्सद्मानं दिव्यं विवासान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गायत्। साम। नभन्यम्। यथा। वेः। अर्चाम। तत्। ववृधानम्। स्वःऽवत्। गावः। धेनवः। बर्हिषि। अदब्धाः। आ। यत्। सद्मानम्। दिव्यम्। विवासान् ॥ १.१७३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 173; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्गुणानाह ।

    अन्वयः

    यत्स्वर्वद्ववृधानं नभन्यं साम विद्वान् यथा त्वं वेस्तथा गायद्बर्हिषि गाव इव याश्चादब्धा धेनवो दिव्यं सद्मानमाविवासाँस्तत्ताश्च वयमर्चाम ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (गायत्) गायेत् (साम) (नभन्यम्) नभसि साधु। अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य नः। (यथा) (वेः) स्वीकुर्याः (अर्चाम) सत्कुर्याम (तत्) (ववृधानम्) भृशं वर्द्धकम्। तुजादीनामित्यभ्सासदैर्घ्यम्। (स्वर्वत्) स्वः सुखं सम्बद्धं यस्मिँस्तत्। अत्र सम्बन्धे मतुप्। (गावः) किरणा इव (धेनवः) दुग्धदात्र्यः (बर्हिषि) अन्तरिक्षे (अदब्धाः) हिंसितुमयोग्याः (आ) (यत्) (सद्मानम्) सीदन्ति यस्मिँस्तम् (दिव्यम्) कमनीयम् (विवासान्) सेवेरन् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा किरणा अन्तरिक्षे विस्तीर्णा भूत्वा सर्वं प्रकाशयन्ति तथाऽस्माभिर्विद्यया सर्वेषामन्तःकरणानि प्रकाशनीयानि। यथा निराधाराः पक्षिण आकाशे गच्छन्त्यागच्छन्ति तथा विदुषां भूगोलानाञ्च गतिरस्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तेरह ऋचावाले एकसौ तेहत्तरवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें आरम्भ से फिर विद्वानों के गुणों का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (स्वर्वत्) सुखसम्बन्धी वा सुखोत्पादक (ववृधानम्) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त (नभन्यम्) आकाश से बीच में साधु अर्थात् गगनमण्डल में व्याप्त (साम) साम गान को विद्वान् आप (यथा) जैसे (वेः) स्वीकार करे वैसे (गायत) गावें और (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में जो (गावः) किरणें उनके समान जो (अदब्धाः) न हिंसा करने योग्य (धेनवः) दूध देनेवाली गौएँ (दिव्यम्) मनोहर (सद्मानम्) जिसमें स्थित होते हैं उस घर को (आ, विवासान्) अच्छे प्रकार सेवन करें (तत्) उस सामगान और उन गौओं को हम लोग (अर्चाम) सराहें उनका सत्कार करें ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे किरणें अन्तरिक्ष में विथुर कर सबका प्रकाश करती हैं, वैसे हम लोगों को विद्या से सबके अन्तःकरण प्रकाशित करने चाहिये, जैसे निराधार पक्षी आकाश में आते-जाते हैं, वैसे विद्वानों और लोकलोकान्तरों की चाल है ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रभु-अर्चन व वासना- विनाश

    पदार्थ

    १. मन्त्र का ऋषि 'इन्द्र' (साम गायत्) = उपासना-मन्त्र का गान करता है। यह मन्त्र (नभन्यम्) = [नभ हिंसायाम्] उसकी वासनाओं का हिंसन करनेवाला होता है। यह उसी प्रकार उपासना करता है यथा (वेः) = [वेत्ति] जैसे कि जानता है। जितना और जिन शब्दों को वह जानता और समझता है, उन्हीं शब्दों में उपासना करता है । २. हम भी अर्चाम उस प्रभु का अर्चन करते हैं जो तत्=(तनु विस्तारे) सर्वत्र विस्तृत - सर्वव्यापक है, वावृधानम्-खूब बढ़ा हुआ है, सब गुणों की चरम सीमा है। स्वर्वत्- वे प्रकाशमय व सुखस्वरूप हैं । ३. इस उपासना के होने पर गाव: = पदार्थों का ज्ञान देनेवाली ये ज्ञानेन्द्रियाँ धेनवः - ज्ञान - दुग्ध देनेवाली होती हैं तथा बर्हिषि = वासनाशून्य हृदय में अदब्धाः = अहिंसित होती हैं। ये इन्द्रियाँ वासनाओं से आक्रान्त नहीं होतीं। ४. ऐसा होता तभी है यत्- जब कि सद्मानम्- सबके हृदयों में आसीन होनेवाले दिव्यम् = प्रकाशमय प्रभु की आ विवासान् पूजा करते हैं। प्रभु का निवास सबके हृदयों में है । ये प्रभु हमारे हृदय को प्रकाशमय करते हैं। इस प्रकाशमय हृदय में वासनाओं के लिए स्थान नहीं । =

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का अर्चन हमें वासनाओं से बचाता है। हमारी इन्द्रियाँ विषयों के आक्रमण से आक्रान्त नहीं होतीं ।

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    विषय

    प्रातः गौ वत् किरणों का प्रकाश करना और विद्वान् को वेदगान का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! ( धेनवः ) गौएं जिस प्रकार ( अदब्धाः ) पीड़ित न होकर सुख से ( बर्हिषि ) यज्ञ में ( दिव्यं सद्मानं आविवासान् ) उत्तम गृह में आकर रहती हैं उसी प्रकार जब ( गावः ) सूर्य की किरणें ( बर्हिषि ) अन्तरिक्ष में ( दिव्यं सद्मानं ) अपने दिव्य, तेजस्वी निवास या आश्रय स्थान सूर्य को ( आ विवासान् ) सब तरफ प्रकाशित करदें तब प्रातःकाल के समय तू ( यथा ) जिस प्रकार भी प्रकार तू जानता हो, उसी प्रकार तू ( नभन्यं साम ) अज्ञान के नाश करने वाले या अविनाशी ईश्वर की स्तुति करने वाले, या ईश्वर के साथ आत्मा को बांधने वाले, या सूर्य के समान परमेश्वर से सम्बद्ध, या उच्च स्वर से आकाश भर में गूंजने वाले, ( साम ) साम को ( गायत् ) गान कर। और (तत् ) उस ( वावृधानं ) सबसे बड़े, सबके बढ़ाने वाले ( स्वर्वत् ) सब सुखों के स्वामी की हम भी (अर्चाम) स्तुति करें । ( यत् ) जिसको ( दिव्यं सद्मानं धेनव इव ) कामना योग्य आश्रय स्थान को दुधार गौवों के समान ( गावः ) ज्ञान रस देने वाली वेद वाणियें ही ( अदब्धाः ) कभी नाश को न प्राप्त होकर ( बर्हिषि ) सबको बढ़ाने वाले यज्ञ या उपासना में ( यत् दिव्यं ) जिस दिव्य, परम कमनीय, आनन्दमय ( सद्मानं ) सबके आश्रय, शरण्य परमेश्वर को ( आ विवासान् ) सब प्रकार से प्रकट करती हैं। सब वेद वाणियां जिस शरण्य प्रभु के ही स्वरूप को प्रकट करती है उसके स्तुति साम को तू गा उसी महान् आनन्दमय की हम उपासना करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ११ पङ्क्तिः । ६, ९, १०, १२ भुरिक पङ्क्तिः। २, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ७, १३ निचृत् त्रिष्टुप । ४ बृहती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वानांच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी किरणे अंतरिक्षात पसरून सर्वत्र प्रकाश करतात तसे विद्येने आम्हा सर्वांच्या अंतःकरणात प्रकाश केला पाहिजे. जसे निराधार पक्षी आकाशात येतात, जातात तशी विद्वानांची व लोकलोकान्तराची गती असते. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the holy man sing spontaneous songs of joyous Sama like the song of the bird soaring to the clouds, and we shall join that resounding melody of music overflowing with divine ecstasy, when the rays of the dawn, generous like venerable holy cows, sacred and inviolable, fill the vault of the sky and celebrate the heavenly sun rising in splendour over the world and the generous cows stir around the stalls and sit on the holy grass around the yajnic area doing homage to Indra.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    You accept the Sama (the divine music), and therefore confer and promote happiness, ascending to the heaven. Chant it verily. Like the sun-rays in the sky, the cows and its progeny are not killed or harmed by anybody while entering their divine (clean) shed. We honor the good chanters of the Sama and the Kine.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A simile is used here. The rays of the sun, pervading the firmament, illuminate all. Likewise, we should illuminate, the hearts of all by imparting them knowledge and wisdom. The birds move in the sky uninterrupted, in the same manner, the learned persons be free to move from place to place for preaching truth all over the world.

    Foot Notes

    (वेः) स्वीकुर्या: = Accepted. (बर्हिषि ) अन्तरिक्षे = In the firmament or sky. (अदब्धा:) हिंसितुम् अयोग्या: = Inviolable.

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