ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 182/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
यु॒वमे॒तं च॑क्रथु॒: सिन्धु॑षु प्ल॒वमा॑त्म॒न्वन्तं॑ प॒क्षिणं॑ तौ॒ग्र्याय॒ कम्। येन॑ देव॒त्रा मन॑सा निरू॒हथु॑: सुपप्त॒नी पे॑तथु॒: क्षोद॑सो म॒हः ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । ए॒तम् । च॒क्र॒तुः॒ । सिन्धु॑षु । प्ल॒वम् । आ॒त्म॒न्ऽवन्त॑म् । प॒क्षिण॑म् । तौ॒ग्र्याय॑ । कम् । येन॑ । दे॒व॒ऽत्रा । मन॑सा । निःऽऊ॒हथुः॑ । सु॒ऽप॒प्त॒नि । पे॒त॒थुः॒ । क्षोद॑सः । म॒हः ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवमेतं चक्रथु: सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम्। येन देवत्रा मनसा निरूहथु: सुपप्तनी पेतथु: क्षोदसो महः ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। एतम्। चक्रतुः। सिन्धुषु। प्लवम्। आत्मन्ऽवन्तम्। पक्षिणम्। तौग्र्याय। कम्। येन। देवऽत्रा। मनसा। निःऽऊहथुः। सुऽपप्तनि। पेतथुः। क्षोदसः। महः ॥ १.१८२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 182; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकृतविषये नौकाविमानादिनिर्माणविषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना युवं युवां सिन्धुषु तौग्र्यायैतमात्मन्वन्तं पक्षिणं कं प्लवं चक्रथुः। येन देवत्रा मनसा सुपप्तनी निरूहथुर्महः क्षोदसः पेतथुः ॥ ५ ॥
पदार्थः
(युवम्) (एतम्) (चक्रथुः) कुर्य्यातम् (सिन्धुषु) नदीषु समुद्रेषु वा (प्लवम्) प्लवन्ते पारावारौ गच्छन्ति येन तं नौकादिकम् (आत्मन्वन्तम्) स्वकीयजनयुक्तम् (पक्षिणम्) पक्षौ विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (तौग्र्याय) तुग्रेषु बलिष्ठेषु भवाय (कम्) सुखकारिणम् (येन) (देवत्रा) देवेष्विति (मनसा) विज्ञानेन (निरूहथुः) नितरां वाहयेतम् (सुपप्तनी) शोभनं पतनं गमनं ययोस्तौ (पेतथुः) पतेतम् (क्षोदसः) जलस्य (महः) महतः ॥ ५ ॥
भावार्थः
ये विस्तीर्णा दृढा नावो रचयित्वा समुद्रस्य मध्ये गमनाऽगमने कुर्वन्ति ते स्वयं सुखिनो भूत्वाऽन्यान् सुखयन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रकरणगत विषय में नौका और विमानादि बनाने के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे उक्त गुणवाले अध्यापकोपदेशको ! (युवम्) तुम (सिन्धुषु) नदी वा समुद्रों में (तौग्र्याय) बलवानों में प्रसिद्ध हुए जन के लिये (एतम्) इस (आत्मन्वन्तम्) अपने जनों से युक्त (पक्षिणम्) और पक्ष जिसमें विद्यमान ऐसे (कम्) सुखकारी (प्लवम्) उस नौकादि यान को जिससे पार-अवार अर्थात् इस पार उस पार जाते हैं (चक्रथुः) सिद्ध करो कि (येन) जिससे (देवत्रा) देवों में (मनसा) विज्ञान के साथ (सुपप्तनी) जिनका सुन्दर गमन है वे आप (निरूहथुः) निरन्तर उस नौकादि यान को बहाइये और (महः) बहुत (क्षोदसः) जल के (पेतथुः) पार जावें ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो जन लम्बी, चौड़ी, ऊँची नावों को रच के समुद्र के बीच जाना-आना करते हैं, वे आप सुखी होकर औरों को सुखी करते हैं ॥ ५ ॥
विषय
भवसागर-नौका
पदार्थ
१. 'तुग्रया' शब्द का अर्थ जल=water है। यहाँ भवसागर के जल 'विषय' ही हैं। इन विषयों में फँसा हुआ व्यक्ति 'तौग्र्य' है । इस (तौग्र्याय) = तौद्र्य के लिए, इसे भवसागर से तारने के लिए (युवम्) = हे प्राणापानो! आप दोनों (सिन्धुषु) = इस भवसागर के जलों में (एतम्) = इस शरीर को (प्लवम्) = एक बेड़े के रूप में (चक्रथुः) = करते हो, जो बेड़ा (आत्मन्वन्तम्) = प्रशस्त मनवाला है, (पक्षिणम्) = ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों-रूप दो पक्षों-पांसोंवाला [भटकाने, पथभ्रष्ट करनेवाले] है। यह बेड़ा तौग्रय को विषय-जल में डूबने न देता हुआ कम्-सुख को देनेवाला है । २. यह वह बेड़ा है (येन) = जिससे (देवत्रा मनसा) = उस परमदेव प्रभु में लगे मन के द्वारा (निरूहथुः) = हे प्राणापानो! आप हमें इस भवसागर से पार करते हो । (सुपप्तनी) = आप दोनों बड़ी उत्तम गतिवाले हो। आप (महः) क्षोदस:- इस महान् विषय-जल से पेतथुः हमें पार करने के लिए गति करते हो [पत् गतौ]।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से यह शरीर एक बेड़ा बन जाता है, जो हमें भवसागर के विषयजल में डूबने से बचाता है ।
विषय
राष्ट्र के दो उत्तम पदाधिकारियों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( युवम् ) आप दोनों स्त्री पुरुष वर्ग मिलकर (सिन्धुषु) समुद्रों में ( एतं ) ऐसे २ ( आत्मन्वन्तं ) अपने जनों से युक्त या दृढ़, ( पक्षिणं ) पक्षों और पतवारों वाले (प्लवम्) जहाज़ को ( तौग्र्याय ) बलशाली, शत्रुनाशकारी वा लेन देन करने वाले व्यापारी पुरुषों के उपयोग के लिये ( चक्रथुः ) बनाओ । ( येन ) जिससे ( देवत्रा ) विद्वानों के बीच में विद्यमान ( मनसा ) ज्ञान के द्वारा ( सुपप्तनी ) सुख से गमन करने में समर्थ होकर (निः ऊहथुः ) दूर २ तक पहुंची और ( महः क्षोदसः ) बड़े भारी जल सागर के भी (पेतथुः) पार करने में समर्थ होवो (२) अध्यात्म में—यह देह ( सिन्धुषु ) प्राणों के आश्रय पर बना संसार सागर से पार उतरने का ‘प्लव’ है, आत्म युक्त होने से ‘आत्मन्वान्’ है । वाम, दक्षिण पार्श्व समान होने से पक्षी के तुल्य है। वह इस निकेतन या गृह रूप देह में रहने वाले जीव के लिये प्राण और अपान धारण करते चलाते हैं। वे दोनों मन के बल से इन्द्रियों के बल पर चलाते हैं। बड़े भारी काल या जीवन को पार कर जाते हैं । इति सप्तविंशो वर्गः ॥ अवविद्धं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ५, ७ निचृज्जगती । २ स्वराट् त्रिष्टुप्। ३ जगती। ४ विराड् जगती । ६, ८ स्वराट् पङ्क्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक विस्तीर्ण नावा तयार करून समुद्रात जाणे-येणे करतात ते स्वतः सुखी होऊन इतरांना सुखी करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, scholar of science and technologist of marine engineering and aeronautics, both create the safe and comfortable winged boat, self-powered and self- propelled, moving through and over the seas for the strongest man among the strong by which you, noblest among the noble people, with your science and skill, fly like birds and cross the wide seas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Journey by sea makes the adventurers and other happy.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! you build a pleasant and big substantial propelled steamer. In it are seated many kith and kin borne on the ocean waters for a powerful God devoted man. With knowledge, you bear him up. Your movements are good, and so make a path for him across the great waters.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who build vast and strong steamers and make voyages in the sea and on the other shores and come back, enjoy happiness and make others also happy.
Foot Notes
(प्लवम् ) प्लवन्ते पारावारौ गच्छंति येन तं नौकादिकम् = Boats or steamer which takes across the river or ocean. (क्षोदस:) जलस्य । क्षोद इत्युदकनाम (NG—1.12) = Of the waters.
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