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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 186 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 186/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त न॑ ईं म॒तयोऽश्व॑योगा॒: शिशुं॒ न गाव॒स्तरु॑णं रिहन्ति। तमीं॒ गिरो॒ जन॑यो॒ न पत्नी॑: सुर॒भिष्ट॑मं न॒रां न॑सन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । ई॒म् । म॒तयः॑ । अश्व॑ऽयोगाः । शिशु॑म् । न । गावः॑ । तरु॑णम् । रि॒ह॒न्ति॒ । तम् । ई॒म् । गिरः॑ । जन॑यः । न । पत्नीः॑ । सु॒र॒भिःऽत॑मम् । न॒राम् । न॒स॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत न ईं मतयोऽश्वयोगा: शिशुं न गावस्तरुणं रिहन्ति। तमीं गिरो जनयो न पत्नी: सुरभिष्टमं नरां नसन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नः। ईम्। मतयः। अश्वऽयोगाः। शिशुम्। न। गावः। तरुणम्। रिहन्ति। तम्। ईम्। गिरः। जनयः। न। पत्नीः। सुरभिःऽतमम्। नराम्। नसन्त ॥ १.१८६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 186; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्दृष्टान्तरेण विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या येऽश्वयोगा मतयस्तरुणं शिशुं गावो न नोऽस्मानीम्रिहन्ति यं नरां मध्ये सुरभिष्टमं जनयः पत्नीर्न नसन्त स ईं गिरः प्राप्नोति तमुतापि वयं सेवेमहि ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (उत) (नः) अस्मान् (ईम्) (मतयः) मनुष्याः (अश्वयोगाः) येऽश्वान्योजयन्ति ते (शिशुम्) वत्सम् (न) इव (गावः) (तरुणम्) युवावस्थास्थम् (रिहन्ति) प्राप्नुवन्ति (तम्) (ईम्) सर्वतः (गिरः) वाणीः (जनयः) जनयितारः (न) इव (पत्नीः) दारान् (सुरभिष्टमम्) अतिशयेन सुरभिः सुगन्धिस्तम् (नराम्) मनुष्याणाम् (नसन्त) प्राप्नुवन्तु। नस इति गतिकर्मा०। निघं० २। १४। ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    यथाऽश्वारूढाः सद्यः स्थानान्तरं यथा वा गावो वत्सान् यथा वा स्त्रीव्रताः स्वपत्नीश्च प्राप्नुवन्ति तथा विद्वांसो विद्याप्तवाचो यान्ति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर और दृष्टान्त से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अश्वयोगाः) अश्वयोग अर्थात् अश्वों का योग कराते हैं वे (मतयः) मनुष्य (तरुणम्) तरुण (शिशुम्) बछड़ों को (न) जैसे (गावः) गौयें वैसे (नः) हम लोगों को (ईम्) सब ओर से (रिहन्ति) प्राप्त होते हैं, जिस (नराम्) मनुष्यों के बीच (सुरभिष्टमम्) अतिशय करके सुगन्धित सुन्दर कीर्त्तिमान् को (जनयः) उत्पत्ति करानेवाले जन (पत्नीः) अपनी पत्नियों को जैसे (न) वैसे (नसन्त) प्राप्त होवें वह (ईम्) सब ओर से (गिरः) वाणियों को प्राप्त होता है (तम्) उसको (उत) ही हम लोग सेवें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जैसे घुड़चढ़ा शीघ्र एकस्थान से दूसरे स्थान को वा जे गौयें बछड़ों को वा स्त्रीव्रत जन अपनी अपनी पत्नियों को प्राप्त होते हैं, वैसे विद्वान् जन विद्या और श्रेष्ठ विद्वानों की वाणियों को प्राप्त होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    'सुरभिष्टम' प्रभु का स्तवन

    पदार्थ

    १. (ईम्) = निश्चय से (नः) = हमारी (अश्वयोगाः) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली [अश् व्याप्तौ] इन्द्रियों से मेलवाली (मतयः) = बुद्धियाँ उस (तरुणम्) = संसार-समुद्र से तारनेवाले प्रभु का (रिहन्ति) = आस्वाद लेती हैं अर्थात् स्तवन करती हैं, उसी प्रकार (न) = जैसेकि (गावः) = गौएँ (शिशुम्) = एक छोटे बच्चे को चाटती हैं । २. (उत) = और (नराम्) = मनुष्यों की (गिरः) = स्तुतिवाणियाँ (ईम्) = निश्चय से (तम्) = उस (सुरभिष्टमम्) = अत्यन्त दीप्त, [shining], सर्वोत्तम मित्र [friendly], सर्वाधिक कीर्तिवाले [famous] प्रभु को नसन्त उसी प्रकार प्राप्त होती हैं (न) = जैसे कि (जनयः) = सन्तानों को जन्म देनेवाली (पत्नीः) = पत्नियाँ पति को प्राप्त होती हैं। प्रभु का 'सुरभिष्टमं' रूप में स्तवन करती हुई ये वाणियाँ हमें भी 'दीप्त, सर्वमित्र व कीर्तिमय' जीवनवाला बनने की प्रेरणा देती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी इन्द्रियाँ व बुद्धियाँ प्रभु की ओर झुकें। हमारी वाणियाँ उस दीप्त प्रभु का गुणगान करें ।

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    विषय

    उत्तम विद्वान् अधिकारियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (नरां) समस्त नायकों में से (सुरभिस्तमं) उत्तम प्रशंसनीय, सब से अधिक बलवान् पुरुष को जिस प्रकार (अश्वयोगाः) घोड़ों को रथों में जोतने वाले और (मतयः) बुद्धिमान्, सारथी या अश्वों के साथ सेना में योग देने वाले (मतयः) वा शत्रुस्तम्भनकारी वीर प्राप्त होते हैं और जिस प्रकार (गावः) गौवें (शिशुं तरुणं रिहन्ति) नन्हे बच्छे को प्रेम से चाटती हैं और जिस प्रकार (गावः) गौवें (तरुणं) तरुण, युवा (सुरभिस्तमम्) सर्वोत्तम, सुगन्धयुक्त, वीर्यवान् सांड को (रिहन्ति) कामना वश चाटती हैं और जिस प्रकार (जनयः पत्नीः ) सन्तानाभिलाषी स्त्रियां ( नरां सुरभिस्तरं ) सब मनुष्यों में सब से उत्तम काम करने या आलिङ्गनादि चतुर, सुदृढ़ पुरुष को (नसन्त) प्राप्त होती व संग रहती हैं उसी प्रकार (नः) हमारे (मतयः) मनन शील मनुष्य भी (अश्वयोगाः) शीघ्रगामी अश्व आदि साधनों से युक्त होकर (तरुणं) कष्टों से पार करने वाले (नरां) सब मनुष्यों में (सुरभिस्तमं) उत्तम से उत्तम कार्य करने वाले नायक पुरुष को (नसन्त) प्राप्त होते हैं। (तम् ईं) उसको ही (गिरः) सब स्तुति वाणियां भी (नसन्त) प्राप्त होती हैं। (२) परमेश्वर के पक्ष में—(नः अश्वयोगाः मतयः) हमारी मन और आत्मा से युक्त बुद्धियां और वाणियां, बच्छे के प्रति गौवों के समान ( तं रिहन्ति ) उसीका आस्वाद लेती, उसीको लक्ष्य कर उस तक पहुंचती हैं। प्रभु सब से बड़ा, बलवान्, सृष्टिकर्त्ता होने से ‘सुरभिस्तम’ है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत त्रिष्टुप्। ११ भुरिक त्रिष्टुप्। ३, ५, ७ भुरिक् पङ्क्तिः। ६ पङ्क्तिः। १० स्वराट् पङ्क्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा घोडेस्वार एका स्थानापासून दुसऱ्या स्थानी जातो किंवा जशा गाई आपल्या वासरांबरोबर असतात किंवा स्त्रीव्रती पुरुष आपापल्या पत्नीसोबत राहतात तसे विद्वान लोकांना विद्या व श्रेष्ठ विद्वानांची वाणी प्राप्त होते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All our people, masters of thought at high speed and knights of horse, all our love and understanding, honour and esteem, devotion and prayers, determination and resolutions centre round this youthful ruler, Indra, most fragrantly lovable among men, as cows love and caress a tender calf, and all our words of praise and appreciation concentrate or him in the hope of progress as husbands concentrate on the love of the wives yearning for progeny.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and duties of the scholars illustrated with other simile.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Horse riders go to distant places, the cows go their calves, and the virile husbands approach their wives (for the continuous flow of their generation ). Likewise, a person who on account of his divine virtues is the most fragrant, is approached by all, with their sweet words of praise. Let us also serve such a person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the riders of horses go quickly to distant places, as the cows go to their calves, as the faithful husbands go to their chaste wives, likewise the learned persons study various sciences and listen to the words of the absolutely truthful persons.

    Foot Notes

    (ईम्) सर्वतः = From all sides. (जनमः ) जनयतार: = Progenitors, husbands or procreators.

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