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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अबोषधिसूर्याः छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    श॒रास॒: कुश॑रासो द॒र्भास॑: सै॒र्या उ॒त। मौ॒ञ्जा अ॒दृष्टा॑ वैरि॒णाः सर्वे॑ सा॒कं न्य॑लिप्सत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒रासः॑ । कुश॑रासः । द॒र्भासः॑ । सै॒र्याः । उ॒त । मौ॒ञ्जाः । अ॒दृष्टाः॑ । वै॒रि॒णाः । सर्वे॑ । सा॒कम् । नि । अ॒लि॒प्स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शरास: कुशरासो दर्भास: सैर्या उत। मौञ्जा अदृष्टा वैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शरासः। कुशरासः। दर्भासः। सैर्याः। उत। मौञ्जाः। अदृष्टाः। वैरिणाः। सर्वे। साकम्। नि। अलिप्सत ॥ १.१९१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये शरासः कुशरासो दर्भासः सैर्या मौञ्जा उत वैरिणा अदृष्टाः सन्ति ते सर्वे साकं न्यलिप्सत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (शरासः) वेणुदण्डसदृशा अन्तश्छिद्रास्तृणविशेषस्थाः (कुशरासः) कुत्सिताश्च ते (दर्भासः) कुशाः (सैर्याः) तडागादितटेषु भवास्तृणविशेषस्थाः (उत) अपि (मौञ्जाः) मुञ्जानामिमे (अदृष्टाः) (वैरिणाः) वीरिणेषु भवाः (सर्वे) (साकम्) सह (नि) (अलिप्सत) लिम्पन्ति ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये विविधतृणेषु क्वचित् स्थानादिलोभेन क्वचिच्च तद्गन्धमाघ्रातुं पृथक्पृथक् क्षुद्रा विषधरा अदृष्टा जीवास्तिष्ठन्ति तेऽवसरं प्राप्य मनुष्यादिप्राणिनो बाधन्ते ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (शरासः) बांस के तुल्य भीतर छिद्रवाले तृणों में ठहरनेवाले वा जो (कुशरासः) निन्दित उक्त तृणों में ठहरते वा (दर्भासः) कुशस्थ वा जो (सैर्याः) तालाबों के तटों में प्रायः होनेवाले तृणों में ठहरते वा (मौञ्जाः) मूँज में ठहरते (उत) और (वैरिणाः) गाढ़र में होनेवाले छोटे-छोटे (अदृष्टाः) जो नहीं देखे गये जीव हैं वे (सर्वे) समस्त (साकम्) एक साथ (न्यलिप्सत) निरन्तर मिलते हैं ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो नाना प्रकार के तृणों में कहीं स्थानादि के लोभ से और कहीं उन तृणों के गन्ध लेने को अलग-अलग छोटे-छोटे विषधारी छिपे हुए जीव रहते हैं, वे अवसर पाकर मनुष्यादि प्राणियों को पीड़ा देते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    शर आदि में रहनेवाले विषधर

    पदार्थ

    १. (शरासः) = सरकण्डों में रहनेवाले, (कुशरास:) = छोटे-छोटे सरकण्डों में रहनेवाले, (दर्भासः) = डाभ या कुश-घास में रहनेवाले (उत) = और (सैर्या:) = नदी व तालाब के तटों पर उत्पन्न घासों में होनेवाले, (मौञ्जा:) = मूँज में रहनेवाले, (वैरिणा:) = वीरण नामक तृणों में रहनेवाले, (अदृष्टाः) = न दीखनेवाले (सर्वे) = सब विषैले कृमि (साकम्) = उन-उन तृणादि पदार्थों के साथ चिपटे हुए (न्यलिप्सत) = हमारे अङ्गों को विषलिप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - घास-फूस व झाड़-झंखाड़ों में फँसे हुए विषैले प्राणी हमें काट लेते हैं और हमारे अङ्गों को विषव्याप्त कर देते हैं।

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    विषय

    विषैले जीवों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( शरासः ) शर अर्थात् सरकण्डे के समान, ( कुशरासः ) छोटी जात के सरकण्डे के समान, ( दर्भासः ) दाभ या कुशा घास के समान, ( सैर्या उत ) नदियों, तालाबों के तटों में उत्पन्न घासों के बीच, ( मौञ्जाः ) मूंजों में रहने वाले ( वैरिणाः ) वीरण नाम तृणों में रहने वाले ये नाना प्रकार के ( अदृष्टाः ) उनके बीच न दीखने वाले विषैले जन्तु ( सर्वे ) सब ( साकं ) उन २ तृण आदि पदार्थों के साथ ही ( नि अलिप्सत ) चिपटे रहते और उनमें छुपे रहते और घात लगाये रहते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कुठे स्थानासाठी तर कुठे तृणाचा गंध प्राप्त करण्यासाठी, विविध प्रकारच्या तृणांमध्ये निरनिराळे छोटे छोटे विषधारी साप लपलेले असतात. ते संधी साधून माणसांना त्रास देतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The parasitic seeds of poison lurk in the hollow of bamboos and in inferior reeds, in the darbha grass and in reeds and grasses round tanks, lakes and streams. Unseen they lurk in the munja roots and leaves and virina plants. Together they all stick to anything as parasites.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    One should be careful of the stings or poison of the insects creatures.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The groves and the grass like the bamboo grass, other kinds of shrubs and groves of trees, and sometimes the aquatic creatures with venomous teeth and stings, and the other creatures found in the deserts or barren lands-all these anoint with their venom. (Proper antidoes should be administered to remove their effects).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The little or subtle venomous creatures which sit on the grass shrubs etc. of various kinds, sometimes to take the odor thereof, cause pain with their teeth and stings to men and other living beings.

    Foot Notes

    (शरास:) वेणुदण्डसदृशा अन्तछिद्रास्तृणविशेषस्था: = Venomous creatures sitting in some kind of grass like the bamboo pole with holes within. (वैरिण:) वीरिणेषु भवाः = Dwelling in the desert grasses.

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