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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वम॑ग्ने प्रथ॒मो अङ्गि॑रा॒ ऋषि॑र्दे॒वो दे॒वाना॑मभवः शि॒वः सखा॑। तव॑ व्र॒ते क॒वयो॑ विद्म॒नाप॒सोऽजा॑यन्त म॒रुतो॒ भ्राज॑दृष्टयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒थ॒माः । अङ्गि॑राः । ऋषिः॑ । दे॒वः । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒वः॒ । शि॒वः । सखा॑ । तव॑ । व्र॒ते । क॒वयः॑ । वि॒द्म॒नाऽअ॑पसः । अजा॑यन्त । म॒रुतः॑ । भ्राज॑त्ऽऋष्टयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा। तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। प्रथमः। अङ्गिराः। ऋषिः। देवः। देवानाम्। अभवः। शिवः। सखा। तव। व्रते। कवयः। विद्मनाऽअपसः। अजायन्त। मरुतः। भ्राजत्ऽऋष्टयः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादिमेनेश्वर उपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! यतस्त्वं प्रथमोऽङ्गिरा ऋषिर्देवानां देवः शिवः सखाऽभवो भवसि ये विद्मनापसो मनुष्यास्तव व्रते वर्त्तन्ते तस्मात्त एव भ्राजदृष्टयः कवयोऽजायन्त जायन्ते ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) जगदीश्वरः (अग्ने) स्वप्रकाशविज्ञानस्वरूपेश्वर (प्रथमः) अनादिस्वरूपो जगतः कल्पादौ सदा वर्त्तमानः (अङ्गिराः) पृथिव्यादीनां ब्रह्माण्डस्य शिरआदीनां शरीरस्य रसोऽन्तर्यामिरूपेणावस्थितः। आङ्गिरसो अङ्गाना हि रसः। (श०ब्रा०१४.३.१.२१) (ऋषिः) सर्वविद्याविद्वेदोपदेष्टा (देवः) आनन्दोत्पादकः (देवानाम्) विदुषाम् (अभवः) भवसि। अत्र लडर्थे लङ्। (शिवः) मङ्गलमयो जीवानां मङ्गलकारी च (सखा) सर्वदुःखविनाशनेन सहायकारी (तव) जगदीश्वरस्य (व्रते) धर्माचारपालनाज्ञानियमे (कवयः) विद्वांसः (विद्मनापसः) वेदनं विद्म तद्विद्यते येषु तानि विज्ञाननिमित्तानि समन्तादपांसि कर्माणि येषां ते (अजायन्त) जायन्ते। अत्र लडर्थे लङ्। (मरुतः) धर्मप्राप्ता मनुष्याः। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत् प्रकाशमाना विद्या ऋष्टिर्ज्ञानं येषान्ते ॥ १ ॥

    भावार्थः

    य ईश्वराज्ञाधर्मविद्वत्सङ्गान् विहाय किमपि न कुर्वन्ति, तेषां जगदीश्वरेण सह मित्रता भवति, पुनस्तन्मित्रतया तेषामात्मसु सत्यविद्याप्रकाशो जायते, पुनस्ते विद्वांसो भूत्वोत्तमानि कर्माण्यनुष्ठाय सर्वेषां प्राणिनां सुखप्रापकत्वेन प्रसिद्धा भवन्तीति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब इकतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) आप ही प्रकाशित और विज्ञानस्वरूपयुक्त जगदीश्वर जिसका कारण (त्वम्) आप (प्रथमः) अनादि स्वरूप अर्थात् जगत् कल्प की आदि में सदा वर्त्तमान (अङ्गिराः) ब्रह्माण्ड के पृथिवी आदि शरीर के हस्त पाद आदि अङ्गों के रस रूप अर्थात् अन्तर्यामी (ऋषिः) सर्व विद्या से परिपूर्ण वेद के उपदेश करने और (देवानाम्) विद्वानों के (देवः) आनन्द उत्पन्न करने (शिवः) मङ्गलमय तथा प्राणियों को मङ्गल देने तथा (सखा) उनके दुःख दूर करने से सहायकारी (अभवः) होते हो और जो (विद्मनापसः) ज्ञान के हेतु काम युक्त (मरुतः) धर्म को प्राप्त मनुष्य (तव) आप की (व्रते) आज्ञा नियम में रहते हैं, इससे वही (भ्राजदृष्टयः) प्रकाशित अर्थात् ज्ञानवाले (कवयः) कवि विद्वान् (अजायन्त) होते हैं ॥ १ ॥

    भावार्थ

    जो ईश्वर की आज्ञा पालन धर्म और विद्वानों के संग के सिवाय और कुछ काम नहीं करते हैं, उनकी परमेश्वर के साथ मित्रता होती है, फिर उस मित्रता से उनके आत्मा में सत् विद्या का प्रकाश होता है और वे विद्वान् होकर उत्तम काम का अनुष्ठान करके सब प्राणियों के सुख करने के लिये प्रसिद्ध होते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    अब इकतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उस के पहले मन्त्र में ईश्वर का प्रकाश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने! यतः त्वं प्रथमः अङ्गिरा ऋषिः देवानां देवः शिवः सखा अभवः भवसि ये विद्मना अपसः मनुष्याः तव व्रते वर्त्तन्ते तस्मात्त् एव भ्राजदृष्टयः कवयः अजायन्त (जायन्ते) ॥ १ ॥

    पदार्थ

    हे  (अग्ने) स्वप्रकाशविज्ञानस्वरूपेश्वर=स्वप्रकाशित और विशिष्ट ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्) जगदीश्वरः=आप ही जगदीश्वर हैं, (प्रथमः) अनादिस्वरूपो जगतः कल्पादौ सदा वर्त्तमानः=अनादि स्वरूप अर्थात् जगत् कल्प की आदि में सदा वर्त्तमान, (अङ्गिराः) पृथिव्यादीनां ब्रह्माण्डस्य शिरआदीनां शरीरस्य रसोऽन्तर्यामिरूपेणावस्थितः= ब्रह्माण्ड के पृथिवी आदि शरीर के हस्त पाद आदि अङ्गों के रस रूप में स्थित अर्थात् अन्तर्यामी, (ऋषिः) सर्वविद्याविद्वेदोपदेष्टा=सर्व विद्या से परिपूर्ण वेद के उपदेश करने और (देवानाम्)=विद्वानों के, (देवः) आनन्दोत्पादकः= आनन्द उत्पन्न करने वाले, (शिवः) मङ्गलमयो जीवानां मङ्गलकारी च=मङ्गलमय तथा प्राणियों को मङ्गल देने तथा, (सखा) सर्वदुःखविनाशनेन सहायकारी=सबके दुःख दूर करने से सहायकारी, (अभवः) भवसि=हो और जो, (विद्मनापसः) वेदनं विद्म तद्विद्यते येषु तानि विज्ञाननिमित्तानि समन्तादपांसि कर्माणि येषां ते=जिनमें प्रत्यक्ष ज्ञान है, ऐसे विज्ञान के निमित्त समस्त तप और कर्म वाले, (मनुष्याः)=मनुष्य, (तव) जगदीश्वरस्य=आप परमेश्वर के, (व्रते) धर्माचारपालनाज्ञानियमे=धर्माचार पालन और ज्ञान की आज्ञा के नियम में, (वर्त्तन्ते)=लगे हुए हैं।, (तस्मात्त्)=इसलिये, (एव)=ही, (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत् प्रकाशमाना विद्या ऋष्टिर्ज्ञानं येषान्ते=विद्या और तीक्ष्ण आयुधों के ज्ञान से प्रकाशित, (कवयः) विद्वांसः=विद्वान् लोग,  (अजायन्त) जायन्ते=होते हैं॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो ईश्वर की आज्ञा पालन धर्म और विद्वानों के संग को छोड़कर और कुछ भी काम नहीं करते हैं, उनकी परमेश्वर के साथ मित्रता होती है। फिर उस मित्रता से उनके आत्मा में सत्य विद्या का प्रकाश होता है और वे फिर वे विद्वान् होकर उत्तम कामों का अनुष्ठान करके सब प्राणियों के सुख को प्राप्त कराने के लिये प्रसिद्ध होते हैं ॥ १ ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (अग्ने) स्वप्रकाशित और विशिष्ट ज्ञानस्वरूप परमेश्वर !  (यतः) क्योंकि (त्वम्) आप ही जगदीश्वर हैं, (प्रथमः) अनादि स्वरूप अर्थात् जगत् कल्प की आदि में सदा वर्त्तमान (अङ्गिराः) ब्रह्माण्ड के पृथिवी आदि शरीर के हस्त पाद आदि अङ्गों के रस रूपवाले अर्थात् अन्तर्यामी, (ऋषिः) सर्व विद्या से परिपूर्ण वेद के उपदेश करने और (देवानाम्) विद्वानों के (देवः) आनन्द उत्पन्न करने वाले, (शिवः) मङ्गलमय तथा प्राणियों को मङ्गल देने तथा (सखा) सबके दुःख दूर करने से सहायकारी (अभवः) हो और (विद्मनापसः) जिनमें प्रत्यक्ष ज्ञान है। ऐसे विशिष्ट ज्ञान के निमित्त समस्त तप और कर्म वाले (मनुष्याः) मनुष्य, (तव) आप परमेश्वर के (व्रते) धर्माचार पालन और ज्ञान की आज्ञा के नियम में (वर्त्तन्ते) लगे हुए हैं। (तस्मात्त्) इसलिये (एव) ही (भ्राजदृष्टयः) विद्या और तीक्ष्ण आयुधों के ज्ञान से प्रकाशित (कवयः) विद्वान् लोग  (अजायन्त) होते हैं॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) जगदीश्वरः (अग्ने) स्वप्रकाशविज्ञानस्वरूपेश्वर (प्रथमः) अनादिस्वरूपो जगतः कल्पादौ सदा वर्त्तमानः (अङ्गिराः) पृथिव्यादीनां ब्रह्माण्डस्य शिरआदीनां शरीरस्य रसोऽन्तर्यामिरूपेणावस्थितः। आङ्गिरसो अङ्गाना हि रसः। (श०ब्रा०१४.३.१.२१) (ऋषिः) सर्वविद्याविद्वेदोपदेष्टा (देवः) आनन्दोत्पादकः (देवानाम्) विदुषाम् (अभवः) भवसि। अत्र लडर्थे लङ्। (शिवः) मङ्गलमयो जीवानां मङ्गलकारी च (सखा) सर्वदुःखविनाशनेन सहायकारी (तव) जगदीश्वरस्य (व्रते) धर्माचारपालनाज्ञानियमे (कवयः) विद्वांसः (विद्मनापसः) वेदनं विद्म तद्विद्यते येषु तानि विज्ञाननिमित्तानि समन्तादपांसि कर्माणि येषां ते (अजायन्त) जायन्ते। अत्र लडर्थे लङ्। (मरुतः) धर्मप्राप्ता मनुष्याः। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (भ्राजदृष्टयः) भ्राजत् प्रकाशमाना विद्या ऋष्टिर्ज्ञानं येषान्ते ॥ १ ॥
    विषयः- तत्रादिमेनेश्वर उपदिश्यते ॥

    अन्वयः- हे अग्ने! यतस्त्वं प्रथमोऽङ्गिरा ऋषिर्देवानां देवः शिवः सखाऽभवो भवसि ये विद्मनापसो मनुष्यास्तव व्रते वर्त्तन्ते तस्मात्त एव भ्राजदृष्टयः कवयोऽजायन्त जायन्ते ॥ १ ॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- य ईश्वराज्ञाधर्मविद्वत्सङ्गान् विहाय किमपि न कुर्वन्ति, तेषां जगदीश्वरेण सह मित्रता भवति, पुनस्तन्मित्रतया तेषामात्मसु सत्यविद्याप्रकाशो जायते, पुनस्ते विद्वांसो भूत्वोत्तमानि कर्माण्यनुष्ठाय सर्वेषां प्राणिनां सुखप्रापकत्वेन प्रसिद्धा भवन्तीति ॥ १ ॥

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    विषय

    शिवसखा

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - हमें आगे ले - चलनेवाले प्रभो ! (त्वम्) - आप (प्रथमः) - [प्रथ विस्तारे] अत्यन्त विस्तृत , सर्वव्यापक हो अथवा आप पहले से ही होनेवाले हो 'समवर्तताग्रे' । (अङ्गिराः) - आप उपासक के अंग - अंग में रस का संचार करनेवाले हैं । (ऋषिः) - तत्त्वदृष्टा हैं । (देवः) - दिव्यगुणों व प्रकाश के पुञ्ज हैं अथवा (देवः) - सब - कुछ देनेवाले हैं और (देवानाम्) - देनेवालों के (शिवः सखा) - कल्याणकर मित्र (अभवः) - होते हैं । 

    २. (तव व्रते) - आपके व्रतों में (कवयः) - क्रान्तदर्शी पुरुष (विद्मनापसः) - ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले (अजायन्त) - हो जाते हैं । प्रभु के व्रतों में चलने का अभिप्राय यही है कि प्रभु 'देव' हैं , हम भी देव बनें प्रभु प्रथम हैं , हम भी विस्तारयुक्त हृदयोंवाले हों ; प्रभु ऋषि हैं , हम भी तत्त्वदर्शी बनने के लिए यत्नशील हों । इस प्रकार प्रभु के व्रतों में चलने पर हम ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले बनते हैं । ३. प्रभु के व्रतों में चलने पर हम (मरुतः) - मितरावी - माप तोलकर बोलनेवाले होते हैं और इस नपा - तुला बोलने से ही वस्तुतः (भ्राज - दृष्टयः) - दीप्तियुक्त दृष्टिवाले होते हैं अथवा (भ्राजत्+ऋष्टयः) - देदीप्यमान शस्त्रोंवाले होते हैं । इन चमकते हुए आयुधों से हम शत्रुओं का विनाश करने में समर्थ बनते हैं । प्रभु - कृपा से हम अंगिरा [शरीर में शक्तिसम्पन्न] , ऋषि [मस्तिष्क में ज्ञान - सम्पन्न] व देव [मन में दिव्यता से युक्त] बनते हैं - यही प्रथम बनना है - प्रथम - स्थान में स्थित होना है । इस प्रकार ये प्रभु हमारे कल्याणकर मित्र हैं । प्रभु के गुणों को धारण करते हुए हम मितभाषी व देदीप्यमान बुद्धि आदि शस्त्रोंवाले होकर वासनारूप शत्रुओं का विनाश कर पाते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे शिवसखा हैं , हम प्रभु के ही व्रतों में चलने का प्रयत्न करें ।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सेनापती इत्यादींच्या अनुयोगी अर्थाच्या प्रकाशाने मागच्या सूक्ताबरोबर या सूक्ताची संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    जे ईश्चराच्या आज्ञेचे पालन, धर्म विद्वानांचा संग याशिवाय दुसरे कोणतेही काम करीत नाहीत, त्यांची परमेश्वराबरोबर मैत्री असते. त्या मैत्रीमुळे त्यांच्या आत्म्यामध्ये सत् विद्येचा प्रकाश होतो व ते विद्वान बनून उत्तम कामाचे अनुष्ठान करून सर्व प्राण्यांना सुख देण्यासाठी प्रसिद्ध असतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, Lord Supreme of the universe, you are the first of existence and pre-existence, life and spirit of the worlds, seer and teacher, light and light-giver of nature for scholars of humanity. Friend and lord of bliss, the scholars, saints and poets, and the fastest geniuses of the world abiding in your laws of Dharma and Karma, with full consciousness and responsibility rise to a state of glorious light and vision.

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    Subject of the mantra

    Now, it is beginning of thirty first hymn. In its first mantra the God has been elucidated.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)= God in the form of self-effulgent and special knowledge! (yataḥ)=because, (tvam)=You are the only one God, (prathamaḥ)=eternal form i.e. ever present in the beginning of the world cycle, (aṅgirāḥ)= the one who is in the form of juice of the parts of the body like earth, hands, feet etc. of the universe, i.e. inner dweller, (ṛṣiḥ)=the preacher of the Vedas full of all knowledge, [aura]=and, (devānām)=of scholars, (devaḥ)=creator of delight, (śivaḥ)=the auspicious and the provider of welfare to living beings, [thathᾱ]=and, (sakhā)=helpful in relieving everyone's sorrow, (abhavaḥ)=are and who, (vidmanāpasaḥ)=those who have distinct knowledge, for the purpose of such special knowledge, those who have all penance and deeds (manuṣyāḥ)=human beings, (tava)=of you God, (vrate)=in the law of observance of righteousness and command of knowledge, (varttante)=are engaged, (tasmātt)=therefore, (eva)=only, (bhrājadṛṣṭayaḥ)=promulgated by the knowledge and knowledge of sharp weapons, (kavayaḥ)=scholars, (ajāyanta)=are.

    English Translation (K.K.V.)

    God in the form of self-effulgent and special knowledge! Because you are God, eternal form i.e. ever present in the beginning of the world cycle, the one who is in the form of juice of the parts of the body like earth, hands, feet etc. of the universe, i.e. inner dweller, full of all knowledge, who preaches the Vedas and generates joy for the scholars. He may be auspicious and helpful in giving happiness to the living beings and removing the sorrows of all and those who have distinct knowledge. Man of all austerity and action for the sake of such specific knowledge, you are engaged in the law of obedience to God's righteousness and command of knowledge. That's why there are learned people enlightened by the knowledge and with expertise of sharp weapons.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those who obey God and do nothing but work in the company of scholars, have friendship with God. Then, through that friendship, the light of true knowledge shines in his soul and he becomes a scholar and becomes famous for performing good deeds and attaining the happiness of all living beings.

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