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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - उषाः छन्दः - विराट्पथ्याबृहती स्वरः - मध्यमः

    उ॒वासो॒षा उ॒च्छाच्च॒ नु दे॒वी जी॒रा रथा॑नाम् । ये अ॑स्या आ॒चर॑णेषु दध्रि॒रे स॑मु॒द्रे न श्र॑व॒स्यवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒वास॑ । उ॒षाः । उ॒च्छात् । च॒ । नु । दे॒वी । जी॒रा । रथा॑नाम् । ये । अ॒स्याः॒ । आ॒ऽचर॑णेषु । द॒ध्रि॒रे । स॒मु॒द्रे । न । श्र॒व॒स्यवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् । ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उवास । उषाः । उच्छात् । च । नु । देवी । जीरा । रथानाम् । ये । अस्याः । आचरणेषु । दध्रिरे । समुद्रे । न । श्रवस्यवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (उवास) वसति (उषाः) प्रभावती (उच्छात्) विवसनात् (च) समुच्चये (नु) शीघ्रम् (देवी) सुखदात्री (जीरा) वेगयुक्ता (रथानाम्) रमणसाधनानां यानानाम् (ये) विद्वांसः (अस्याः) सत्स्त्रियाः (आचरणेषु) समन्ताच्चरन्ति जानन्ति व्यवहरन्ति येषु तेषु (दध्रिरे) धरन्ति (समुद्रे) जलमयेऽन्तरिक्षे वा (न) इष (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवणमिच्छवः ॥३॥

    अन्वयः

    पुनः सा कीदृशी भवेदित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    या स्त्री उषाइव वर्त्तमाना जीरा देवी रथानां मध्यउवास येऽस्याआचरणेषु समुद्रे न श्रवस्यवो दध्रिरे ते रथानामुच्छान्न्वध्वानं तरन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालंकारः। येन स्वसदृशी विदुषी सर्वथाऽनुकूला प्राप्यते स सुखमवाप्नोति नेतरः ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    जो स्त्री उषा के समान (जीरा) वेगयुक्त (देवी) सुख देने वाली (रथानाम्) आनन्ददायक यानों के (उषास) वसती है (ये) जो (अस्याः) इस सती स्त्री के (आचरणेषु) धर्म्म युक्त आचरणों में (समुद्रेन) जैसे सागर में (श्रवस्यवः) अपने आप विद्या के सुनने वाले विद्वान् लोग उत्तम नौका से जाते आते हैं वैसे (दध्रिरे) प्रीति को धरते हैं वे पुरुष अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालंकार है। जिसको अपने समान विदुषी पंडिता और सर्वथा अनुकूल स्त्री मिलती है वह सुख को प्राप्त होता है और नहीं ॥३॥

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    विषय

    प्रभु - प्रेम न कि धनासक्ति

    पदार्थ

    १. (उषाः) = उषः काल ने (उवास) = आज तक भी अन्धकार को दूर किया है (च नु) = और अब भी (देवी) = प्रकाशयुक्त उषः काल (उच्छात्) = अन्धकार को नष्ट करती है । २. यह उषः काल (रथानां जीरा) = रथों की प्रेरक है । उषः के होते ही हमारे शरीररूपी रथ कार्यों में प्रवृत्त होते हैं । ३. (ये) = जो भी व्यक्ति (अस्याः) = इस उषः काल के (आचरणेषु) = समन्तात् गति करने पर (दध्रिरे) = अपनी इन्द्रियों व मन का धारण करते हैं, अर्थात् चित्तवृत्ति - निरोधरूप योग में प्रवृत्त होते हैं, वे (समुद्रे) = [स मुद्रे] उस आनन्दस्वरूप प्रभु में निवास करते हैं । ये लोग (न श्रवस्यवः) = [श्रवस्-wealth] धन की कामनावाले नहीं होते । प्रभु और धन - दोनों की सेवा एकसाथ सम्भव नहीं । अच्छे व्यक्ति के ही है, जो उषा के होते ही क्रियाशील बनते हैं और इन्द्रियों व मन का निरोध करते हुए प्रभु में विचरते हैं, धन के प्रति आकृष्ट नहीं होते ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा हमारे वासनान्धकार को दूर करे । हम इसके निकलते ही क्रियाशील बनें । चित्तवृत्तिनिरोध द्वारा आत्मरूप में स्थित हों । प्रभु का ध्यान करें; धनासक्त न हो जाएँ ।

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (उषाः) प्रभात वेला (उवास) व्यापती है और वह (देवी) प्रकाश वाली होकर (अगात् च नु) सब पदार्थों को प्रकट करती है। वह ही (रथानाम् जीरा) सब रथों या देहों में वेग देने वाली है। उसके प्रकट होने पर सब लोग अपने देहों और व्यापारी लोग अपने शकट आदि रथों को चलाने लगते हैं। और (ये) जो (श्रवस्यवः) धन की इच्छा करने बाले बड़े व्यापारी लोग हैं वे भी (अस्याः आचरणेषु) इसके आगमनों के अवसरों पर (समुद्रे) समुद्र में अपने (दध्रिरे) जहाजों को काबू करते हैं। (न) उसी प्रकार (श्रवस्यवः) ज्ञान की कामना करने वाले योगी जन (अस्याः आचरणेषु) इसके आगमनों के प्रभात कालों में (समुद्रे) अनेक आत्मानंद रसों के बहाने वाले परमेश्वर और आत्मा में (दध्रिरे) धारणा द्वारा अपने आपको स्थापित करते हैं। वह (उषा) ज्योतिष्मती प्रज्ञा प्रकट होती है, वही (देवी) प्रकाश चाली होकर (रथानां जीरा) आनन्द-रसों को वेग से उत्पन्न करती है ॥ इसी प्रकार स्त्री (उषा) पति की कामना करने हारी होकर (उवास) पति के साथ बसे। (देवी) नित्य उसकी ही कामना करती हुई वह (उच्छात च) अपने नाना मनोरथों को उसके प्रति प्रकट करे। (ये) जो (श्रवस्यवः) अन्न के समान भोगने योग्य काम्य-सुखों को चाहने वाले पुरुष (अस्याः) इसके (समुद्रे) नाना आनन्द रसों के उत्पन्न करने वाले काम या अभिलाषा पर या गृहस्थ के निमित्त और (अस्या आचरणेषु) स्त्री के आचरणों पर (दध्रिरे) विशेष संयम या व्यवस्था रखते हैं उनही को वह (देवी रथानां जीरा) सब सुखों की देने वाली और रमण योग्य सुखप्रद कार्यों, व्यवहारों को चलाने वाली होती है ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    या स्त्री उषा इव वर्त्तमाना जीरा देवी रथानां मध्य उवास ये अस्या आचरणेषु समुद्रे न श्रवस्यवः दध्रिरे ते रथानाम् उच्छात् नु अध्वानं तरन्ति ॥३॥

    पदार्थ

    या)=जो, (स्त्री)= स्त्री, (उषाः) प्रभावती=प्रभात बेला की चमक के, (इव) = समान, (वर्त्तमाना)= वर्त्तमान, (जीरा) वेगयुक्ता= वेगयुक्त, (देवी) सुखदात्री=सुख देनेवाली, (रथानाम्) रमणसाधनानां यानानाम् =रमण के साधन यानों में, (मध्य)=में, (उवास) वसति=रहती है, (ये) विद्वांसः=विद्वान्, (अस्याः) सत्स्त्रियाः=सदाचारी स्त्री को, (आचरणेषु) समन्ताच्चरन्ति जानन्ति व्यवहरन्ति येषु तेषु= अच्छे आचरणवाली के समान जानते हुए व्यवहार करते हैं, (समुद्रे) जलमयेऽन्तरिक्षे वा=जलमय स्थान में और अन्तरिक्ष के, (न) इव=के समान (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवणमिच्छवः= स्वयं को ही सुनने की इच्छा, (दध्रिरे) धरन्ति=रखते हैं, (ते) =वे, (रथानाम्) रमणसाधनानां यानानाम्=रमण के साधन यानों में, (उच्छात्) विवसनात्= निर्वस्त्र होने से, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र, (अध्वानम्)=मौन होकर, (तरन्ति)=तैरती हैं ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालंकार है। जिसको अपने समान विदुषी पंडिता और सर्वथा अनुकूल स्त्री मिलती है, वह सुख को प्राप्त होता है, अन्य नहीं ॥३॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र में सूर्य की किरणों को स्त्री रूप में मानते हुए, जलमय स्थान अन्तरिक्ष में निर्वस्त्र होकर रमण करनेवाली कहा गया है। इनका रथों के बीच में रहना भी कहा गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि यहाँ सूर्य की किरणों का वर्णन किया जा रहा है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (या) जो (स्त्री) स्त्री, (उषाः) प्रभात बेला की चमक के (इव) समान (वर्त्तमाना) वर्त्तमान (जीरा) वेगयुक्त (देवी) सुख देनेवाली (रथानाम्) रमण के साधन यानों (मध्य) में (उवास) रहती है, (ये) विद्वान् उसे (अस्याः) सदाचारी स्त्री (आचरणेषु) अच्छे आचरणवाली के समान जानते हुए व्यवहार करते हैं। (समुद्रे) जलमय स्थान अन्तरिक्ष (न) के समान (श्रवस्यवः) स्वयं को ही सुनने की इच्छा (दध्रिरे) रखते हैं, (ते) वे, (रथानाम्) रमण के साधन यानों में (उच्छात्) निर्वस्त्र होने से (नु) शीघ्र (अध्वानम्) मौन होकर (तरन्ति) तैरती हैं ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उवास) वसति (उषाः) प्रभावती (उच्छात्) विवसनात् (च) समुच्चये (नु) शीघ्रम् (देवी) सुखदात्री (जीरा) वेगयुक्ता (रथानाम्) रमणसाधनानां यानानाम् (ये) विद्वांसः (अस्याः) सत्स्त्रियाः (आचरणेषु) समन्ताच्चरन्ति जानन्ति व्यवहरन्ति येषु तेषु (दध्रिरे) धरन्ति (समुद्रे) जलमयेऽन्तरिक्षे वा (न) इष (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवणमिच्छवः ॥३॥ विषयः- पुनः सा कीदृशी भवेदित्युपदिश्यते। अन्वयः- या स्त्री उषाइव वर्त्तमाना जीरा देवी रथानां मध्यउवास येऽस्या आचरणेषु समुद्रे न श्रवस्यवो दध्रिरे ते रथानामुच्छान्न्वध्वानं तरन्ति ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारः। येन स्वसदृशी विदुषी सर्वथाऽनुकूला प्राप्यते स सुखमवाप्नोति नेतरः ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याला आपल्याप्रमाणे विदुषी पंडिता व सर्वस्वी अनुकूल स्त्री मिळते त्याला सुख मिळते, इतराला नाही. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    As the brilliant dawn arrives and shines in splendour, it sets the wheels of life’s chariots in motion. On its arrival the yogis concentrate their minds in meditation as rich merchants send their ships over the sea. (As the sea is vast for the ships, so is the Divine presence vast for the yogi’s mind.)

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    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yā) =That, (strī) =woman, (uṣāḥ)= by the brightness of dawn, (iva) =like, (varttamānā) =present, (jīrā) =speedily, (devī) =giver of delight and, (rathānām) =in the means of travelling, (madhya)=in the, (uvāsa) =resides, (ye) =scholars, [usa]=to that, (asyāḥ) =to this virtuous woman, (ācaraṇeṣu) = Knowingly behaves like a well-behaved person, (samudre)=in watery place space, (śravasyavaḥ)=to listen to oneself, (na)=as a wisher, (dadhrire)=believe, (te) =they, (rathānām) =means of travelling vehicles, (ucchāt)=being naked, (nu) =immediately, (adhvānam) =in silence, (taranti) = swims.

    English Translation (K.K.V.)

    That woman present like the brightness of the dawn, gives speedy happiness and resides in the chariots. Scholars treat her as a virtuous woman with good conduct. In the watery place and like the space, they wish to hear themselves, they swim silently in the vehicles of travelling, soon after being naked.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as figurative in this mantra. The one who finds a learned scholar equal to him and a completely suitable woman as a spouse, he attains happiness and not others.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In this mantra, considering the rays of the sun as a woman, she has been said to enjoy being naked in the watery place space. It is also said that they stay in the middle of the chariots. Thus it is clear that the Sun's rays are being described here.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should woman be is taught in the third mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A woman who is beautiful and pleasant like the dawn, active and giver of pleasure and happiness travels by various pleasant vehicles. Those who are pleased with their (wives') good conduct and love them, enjoy happiness, as those who are desirous of wealth and send their ships to sea.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जीरा) वेगयुक्ता = Full of speed or active. (देवी) सुखदात्री = Giver of pleasure.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is only a person who gets a learned wife, quite agreeable to him enjoys happiness and none else (as a house holder).

    Translator's Notes

    देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद्वा ( निरुक्ते ७.४.१६) So the first meaning of देव given by Yaskacharya in the Nirukta has been taken here by Rishi Dayananda.य उषसि योगमम्यस्यन्ति ते किं प्राप्नुवन्तीत्याह

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