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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - उषाः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उषो॒ ये ते॒ प्र यामे॑षु यु॒ञ्जते॒ मनो॑ दा॒नाय॑ सू॒रयः॑ । अत्राह॒ तत्कण्व॑ एषां॒ कण्व॑तमो॒ नाम॑ गृणाति नृ॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उषः॑ । ये । ते॒ । प्र । यामे॑षु । यु॒ञ्जते॑ । मनः॑ । दा॒नाय॑ । सू॒रयः॑ । अत्र॑ । अह॑ । तत् । कण्वः॑ । ए॒षा॒म् । कण्व॑ऽतमः । नाम॑ । गृ॒णा॒ति॒ । नृ॒णाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः । अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उषः । ये । ते । प्र । यामेषु । युञ्जते । मनः । दानाय । सूरयः । अत्र । अह । तत् । कण्वः । एषाम् । कण्वतमः । नाम । गृणाति । नृणाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (उषः) उषसः (ये) (ते) तव (प्र) प्रकृष्टार्थे (यामेषु) प्रहरेषु (युञ्जते) अभ्यस्यन्ति (मनः) विज्ञानं (दानाय) विद्यादिदानाय (सूरयः) स्तोतारो विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृना० निघं० ३।१६। (अत्र) अस्यां विद्यायाम् (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। निरु० १।१५। (तत्) (कण्वः) मेधावी (एषाम्) (कण्वतमः) अतिशयेन मेधावी (नाम) सञ्ज्ञादिकम् (गृणाति) प्रशंसति (नृणाम्) विद्याधर्मेषु नायकानां मनुष्याणां मध्ये ॥४॥

    अन्वयः

    य उषसि योगमभ्यस्यन्ति ते किं प्राप्नुवन्तीत्याह।

    पदार्थः

    हे विद्वन् ! ये सूरयस्ते तव सकाशादुपदेशं प्राप्यात्रोषर्यामेषु दानाय मनोऽह प्रयुंजते ते सिद्धा भवन्ति यः कण्व एषां मृणां नाम गृणाति स कण्वतमो जायते ॥४॥

    भावार्थः

    ये जना एकान्ते पवित्रे निरुपद्रवे देशे स्वासीना यमादिसंयमान्तानां नवानामुपासनांगानामभ्यासं कुर्वन्ति ते निर्मलात्मानः सन्तः प्राज्ञा आप्ताः सिद्धा जायन्ते ये चैतेषां संगसेवे विदधति तेऽपि शुद्धान्तः करणा भूत्वाऽत्मयोगजिज्ञासवो भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    जो प्रभात समय में योगाऽभ्यास करते हैं, वे किसको प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वन् जो (सूरयः) स्तुति करनेवाले विद्वान् लोग ! (ते) आपसे उपदेश पाके (अत्र) इस (उषः) प्रभात के (यामेषु) प्रहरों में (दानाय) विद्यादि दान के लिये (मनः) विज्ञान युक्त चित्त को (प्रयुंजते) प्रयुक्त करते हैं वे जीवन्मुक्त होते हैं और जो (कण्वः) मेधावी (एषाम्) इन (नृणाम्) प्रधान विद्वानों के (नाम) नामों को (गृणाति) प्रशंसित करता है वह (कण्वतमः) अतिशय मेधावी होता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य एकान्त पवित्र निरुपद्रव देश में स्थिर होकर यमादि संयमान्त उपासना के नव अंगों का अभ्यास करते हैं वे निर्मल आत्मा होकर ज्ञानी श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं और जो इनका संग और सेवा करते हैं वे भी शुद्ध अन्तःकरण होके आत्मयोग के जानने के अधिकारी होते हैं ॥४॥

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    विषय

    योग व जप

    पदार्थ

    १. हे (उषः) = प्रातः काल ! (ये) = जो (ते) = तेरे (प्रयामेषु) = प्रकृष्ट प्रहरों में, अर्थात् प्रातः काल के शुभमुहूर्त में (मनः) = अपने मनों को (दानाय) = [दाप् लवणे] वासनाओं के खण्डन के लिए (युञ्जते) = निरुद्ध - वृत्तिवाला करते हैं [योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः], वे ही (सूरयः) = विद्वान् लोग हैं । समझदार मनुष्य प्रातः के शुभमुहूर्त में सोये नहीं रह जाते । उस समय को वे अन्य कार्यों में भी व्यर्थ व्यतीत नहीं करते । उनका यह समय योग - चित्तवृत्ति के निरोध के अभ्यास में ही व्यतीत होता है । २. (अत्र) = इस जीवन में (अह) = निश्चय से (एषां नृणाम्) = इन मनुष्यों में (कण्वः) वही मेधावी है (कण्वतमः) = अत्यन्त मेधावी है जो (तत् नाम) = प्रभु के उस पवित्र नाम 'ओम्' का (गृणाति) = उच्चारण करता है । यह प्रभुनाम का उच्चारण ही तो हमारे जीवनों को पवित्र बनाने का महान् साधन होता है । जहाँ इस नाम का उच्चारण है, वहाँ वासनाओं का प्रवेश नहीं । जहाँ महादेव है, वहाँ कामदेव नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - वासनाओं के विनाश के लिए प्रातः प्रभु का स्मरण करना व चित्तवृत्तिनिरोध का अभ्यास करना आवश्यक है ।

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, कमनीय गुणों से युक्त कन्या और विदुषी स्त्री के गुण और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (उषः) प्रभातवेले! (ये सूरयः) जो सूर्य के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष हैं, वे (ते यामेषु) तेरे आगमन के कालों में (दानाय) अपने आत्मा के बन्धनों को काट देने के लिए (मनः) अपने चित्त को (प्र युञ्जते) योगसमाधि में अच्छी प्रकार लगाते हैं। (अत्र अह) इस ही अवसर पर (एषां नृणाम्) इन मनुष्यों के बीच जो (तत्) उस आत्म-ज्ञान और परम परमेश्वर के नाम और उसके स्वरूप का (गृणाति) स्वयं उच्चारण करता और अन्यों को उपदेश करता है वह (कण्वतमः) बहुत ही बुद्धिमान्, विद्वान् होता है। स्त्री के पक्ष में—(ये सूरयः ते यामेषु दानाय मनः प्रयुञ्जते) जो तेरे आगमन के अवसरों पर दान देने की इच्छा करते हैं वे विद्वान् हैं। और वह बहुत बुद्धिमान् है, जो मनुष्यों को (तत् नाम) स्त्रियों का नानाप्रकार से आदर करने का उपदेश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, ३, ७, ९ विराट् पथ्या बृहती । ५, ११, १३ निचृत् पथ्या बृहती च । १२ बृहती । १५ पथ्या बृहती । ४, ६, १४ विराट् सतः पंक्तिः । २, १०, १६ निचृत्सतः पंक्तिः । ८ पंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    जो प्रभात समय में योगाऽभ्यास करते हैं, वे किसको प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् ! ये सूरयः ते तव सकाशात् उपदेशं प्राप्य अत्र उषः यामेषु दानाय मनः अह प्रयुंजते ते सिद्धा भवन्ति यः कण्व एषां नृणां नाम गृणाति स कण्वतमः जायते ॥४॥

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (ये)=जो, (सूरयः) स्तोतारो विद्वांसः=स्तुति करनेवाले विद्वान्, (ते) तव=तुम्हारे, (सकाशात्) =निकट से, (उपदेशम्)= उपदेशों को, (प्राप्य)= प्राप्त करके, (अत्र) अस्यां विद्यायाम्=इस विद्या में, (उषः) उषसः=उषा के, (यामेषु) प्रहरेषु= प्रहरों में, (दानाय) विद्यादिदानाय=विद्या आदि के दान के लिये, (मनः) विज्ञानम् =विशेष ज्ञान के, (अह) विनिग्रहार्थे=विरोधाभास से, (प्र) प्रकृष्टार्थे= प्रकृष्ट रूप से, (युञ्जते) अभ्यस्यन्ति= अभ्यास करते हैं। (ते) तव=तुम, (सिद्धा)= सिद्ध पुरुष, (भवन्ति)=हो जाते हो। (यः)=जो, (कण्वः) मेधावी= मेधावी, (एषाम्)=इसके, (नृणाम्) विद्याधर्मेषु नायकानां मनुष्याणां मध्ये=विद्या और धर्म के नायक मनुष्यों के बीच में, (नाम) सञ्ज्ञादिकम्= नाम से, (गृणाति) प्रशंसति= प्रशंसा प्राप्त करता है, (सः)=वह, (कण्वतमः) अतिशयेन मेधावी= अतिशय मेधावी, (जायते)=हो जाता है ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य एकान्त पवित्र निरुपद्रव स्थान में अपने आसन में स्थिर होकर यम आदि नियमों का पालन करते हुए सांस को रोककर संयम करते हुए उपासना के अंगों का अभ्यास करते हैं, वे निर्मल आत्मा होकर श्रेष्ठ ज्ञानी सिद्ध होते हैं और जो इनका संग और सेवा करते हैं वे भी शुद्ध अन्तःकरण होके आत्मयोग के जानने के अधिकारी होते हैं ॥४॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-* महर्षिकृत भावार्थ में प्रतीत होता है कि लिपिकीय त्रुटि से पद ‘अनवानाम्’ के स्थान पर ‘नवानाम्’ लिख गया है, जिससे भाषार्थ में परिवर्तन हो गया है। इस पद को ‘अनवानाम्’ कर देने से मन्त्र के पदार्थ से संगत अर्थ निकलता है। इसलिये इस पद को दृष्टिगत करते हुए हमने अनुवाद किया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान् ! (ये) जो (सूरयः) स्तुति करनेवाले विद्वान् (ते) तुम्हारे (सकाशात्) निकट से (उपदेशम्) उपदेशों को (प्राप्य) प्राप्त करके, (अत्र) इस विद्या में (उषः) उषा के (यामेषु) प्रहरों में (दानाय) विद्या आदि के दान के लिये (मनः) विशेष ज्ञान के, (अह) विरोधाभास से (प्र) प्रकृष्ट रूप से (युञ्जते) अभ्यास करते हैं। (ते) वे (सिद्धा) सिद्ध पुरुष (भवन्ति) हो जाते हो। (यः) जो (कण्वः) मेधावी (एषाम्) इन (नृणाम्) विद्या और धर्म के नायक मनुष्यों के बीच में (नाम) नाम से (गृणाति) प्रशंसा प्राप्त करता है, (सः) वह (कण्वतमः) अतिशय मेधावी (जायते) हो जाता है ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उषः) उषसः (ये) (ते) तव (प्र) प्रकृष्टार्थे (यामेषु) प्रहरेषु (युञ्जते) अभ्यस्यन्ति (मनः) विज्ञानं (दानाय) विद्यादिदानाय (सूरयः) स्तोतारो विद्वांसः। सूरिरिति स्तोतृना० निघं० ३।१६। (अत्र) अस्यां विद्यायाम् (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। निरु० १।१५। (तत्) (कण्वः) मेधावी (एषाम्) (कण्वतमः) अतिशयेन मेधावी (नाम) सञ्ज्ञादिकम् (गृणाति) प्रशंसति (नृणाम्) विद्याधर्मेषु नायकानां मनुष्याणां मध्ये ॥४॥ विषयः- य उषसि योगमभ्यस्यन्ति ते किं प्राप्नुवन्तीत्याह। अन्वयः- हे विद्वन् ! ये सूरयस्ते तव सकाशादुपदेशं प्राप्यात्रोषर्यामेषु दानाय मनोऽह प्रयुंजते ते सिद्धा भवन्ति यः कण्व एषां नृणां नाम गृणाति स कण्वतमो जायते ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये जना एकान्ते पवित्रे निरुपद्रवे देशे स्वासीना यमादिसंयमान्तानां अनवानामुपासनांगानामभ्यासं कुर्वन्ति ते निर्मलात्मानः सन्तः प्राज्ञा आप्ताः सिद्धा जायन्ते ये चैतेषां संगसेवे विदधति तेऽपि शुद्धान्तः करणा भूत्वाऽत्मयोगजिज्ञासवो भवन्ति ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे पवित्र, निरुपद्रवी एकान्त स्थळी स्थिर होऊन यम इत्यादी संयमात उपासनेच्या नऊ अंगांचा अभ्यास करतात ते निर्मल आत्मा बनून ज्ञानी, श्रेष्ठ सिद्ध होतात व जे यांचा संग व सेवा करतात तेही शुद्ध अंतःकरणाचे बनून आत्मयोग जाणण्याचे अधिकारी बनतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Usha, 0 lady of divinity, blessed are those brave and brilliant spirits who, during your revelations of the light, concentrate their mind in meditation on the divine presence to surrender it back to mother Prakrti in the state of Kaivalya here itself in this life. And surely here itself in this life, of all these men, that is the wisest sage of the wise sages who chants and realises the sacred Name OM which is the direct sound symbol of the Lord.

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    Subject of the mantra

    Those who practice yoga in the morning, whom do they get, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(vidvan)=scholar, (ye)=those, (sūrayaḥ)=scholar of praise, (te) =your, (sakāśāt) =from close quarters, (upadeśam)=to the sermons, (prāpya) =obtaining, (atra) =in this vidya, (uṣaḥ) =of dawn, (yāmeṣu)=in stages, (dānāya)=for the donation of vidya etc. (manaḥ)=of special knowledge, (aha)=paradoxically, (pra) =wxcwllently, (yuñjate)=practice, (te)=they, (siddhā)=perfect men, (bhavanti) =become, (yaḥ) =those, (kaṇvaḥ) =intelligent, (eṣām)= of these, (nṛṇām)=among heroes of learning and righteousness, (nāma) =by name, (gṛṇāti)=receives praise, (saḥ) =that, (kaṇvatamaḥ)= super bright, (jāyate) =becomes.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! Those praiseworthy scholars, having received sermons from you, In this vidya, in the stages of dawn for the donation of vidya etc., special knowledge, with contradiction, is practiced brilliantly. They become perfect men. The meritorious one who is praised by name of these heroes of learning and righteousness among men, becomes supreme intelligent.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those people who practice the sections of worship by restraining the breath, following the rules of Yama etc., being stable in their seat in a secluded holy place free from any affliction, they prove to be the best knowledgeable by being a pure soul and those who serve them They are also entitled to have union with the supreme spirit by having a pure conscience.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In the translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand, it seems that due to clerical error, '‘navānām’' has been written in place of ‘anavānām’, due to which the interpretation has changed. By making this term ' anavānām ', the interpretation corresponding to the substance of the mantra emerges correctly. That's why we have translated keeping this mantra in mind.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Those who practice Yoga in the Dawn, what do they attain is taught in the fourth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned man, those educated devotees who having taken instructions from you practice Yoga and meditate upon God by fixing their minds on Him at the dawn in order to give true knowledge to others, become siddhas (accomplished persons). The wise man who glorifies these true leaders of knowledge and Dharma (righteousness) becomes the wisest among men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दानाय) विद्यादिदानाय = For giving true knowledge. (कण्वतमः ) अतिशयेन मेधावी = The wisest'

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who sitting in a quiet and pure solitary place, practice nine parts of Yoga including Sanyama, become siddhas, pure in mind word and deed. Those who associate with them and serve them also purify their minds and become seekers after Atma (God and Soul) and Yoga.

    Translator's Notes

    The very use of the word कण्वतम in superlative form of Kanva makes it quite clear that Kanva cannot be taken as a proper noun. Superlative degree is not used after the proper noun in any language, yet Sayanacharya, Wilson, Griffith and others have committed the mistake of taking it as the name of a particular sage. As a matter of fact, as has been pointed out before, Kanva-according to the Vedic Lexicon-Nighantu 3.15 means a highly intelligent or wise man. कण्व इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५ ) The nine parts of the Yoga including Sanyama are यम, नियम, आसन (Posture) प्राणायाम ( Control of breath ) प्रत्याहार (Withdrawing mind from external objects) धारणा (concentration) ध्यान (Meditation) समाधि (Perfect concentration and ecstasy) and संयम (Combination of the last three). The Yamas are five अहिन्सा (Harmlessness or non-violence) सत्य ( Truth ) अस्तेय (non-theft ) ब्रह्मचर्य ( Continence ) अपरिग्रह ( Non-covetousness ). The Niyamas are also five शौच (Cleanliness ). सन्तोष, Contentment ) तप: ( Austerity or hardihood) स्वाध्याय ( Study of the scriptures ) and ईश्वरप्रणिधान ( consecration to God).

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