ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
अ॒भि त्यं मे॒षं पु॑रुहू॒तमृ॒ग्मिय॒मिन्द्रं॑ गी॒र्भिर्म॑दता॒ वस्वो॑ अर्ण॒वम्। यस्य॒ द्यावो॒ न वि॒चर॑न्ति॒ मानु॑षा भु॒जे मंहि॑ष्ठम॒भि विप्र॑मर्चत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्यम् । मे॒षम् । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । ऋ॒ग्मिय॑म् । इन्द्र॑म् । गीः॒ऽभिः । म॒द॒त॒ । वस्वः॑ । अ॒र्ण॒वम् । यस्य॑ । द्यावः॑ । न । वि॒ऽचर॑न्ति । मानु॑षा । भु॒जे । मंहि॑ष्ठम् । अ॒भि । विप्र॑म् । अ॒र्च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम्। यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषा भुजे मंहिष्ठमभि विप्रमर्चत ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। त्यम्। मेषम्। पुरुऽहूतम्। ऋग्मियम्। इन्द्रम्। गीःऽभिः। मदत। वस्वः। अर्णवम्। यस्य। द्यावः। न। विऽचरन्ति। मानुषा। भुजे। मंहिष्ठम्। अभि। विप्रम्। अर्चत ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रशब्दार्थवद्विदुषो राजादेर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयमर्णवमिव त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियं मंहिष्ठमिन्द्रं परमैश्वर्यवन्तं राजानं गीर्भिरभिमदत सर्वतो हर्षयत सूर्यस्य द्यावः किरणान्नेव यस्य भुजे मानुषा विचरन्ति, तस्य वस्वो दातारं विप्रमभ्यर्चत ॥ १ ॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (त्यम्) तम् (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेक्तारम् (पुरुहूतम्) पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिः स्तुतम् (ऋग्मियम्) य ऋग्भिर्मीयते तम् (इन्द्रम्) सूर्यमिव शत्रूणां विदारयितारम् (गीर्भिः) वाग्भिः (मदत) हर्षत (वस्वः) वसोर्धनस्य (अर्णवम्) समुद्रवद्वर्त्तमानम् (यस्य) इन्द्रस्य (द्यावः) प्रकाशः (न) इव (विचरन्ति) (मानुषा) मनुष्याणां हितकारकाणि (भुजे) भोगाय (मंहिष्ठम्) अतिशयेन महान्तम् (अभि) सर्वतः (विप्रम्) मेधाविनम् (अर्चत) सत्कुरुत ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्बहुगुणयोगाद्यः सूर्यवद्विद्वान् राजा वर्त्ततां स एव सत्कर्त्तव्यः। नह्येतेन विना कस्यचित् सुखभोगो जायत इति ॥ १ ॥
हिन्दी (2)
विषय
अब इक्कावनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में इन्द्र शब्दार्थ के समान विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (अर्णवम्) समुद्र के तुल्य (त्यम्) उस (मेषम्) वृष्टिद्वारा सेचन करने हारे (पुरुहूतम्) बहुत विद्वानों से स्तुत (ऋग्मियम्) ऋचाओं से मान करने योग्य (मंहिष्ठम्) गुणों से बड़े (इन्द्रम्) समग्र ऐश्वर्य से युक्त शत्रुओं को विदारण करनेवाले राजा को (गीर्भिः) सत्यप्रशंसित वाणियों से (अभिमदत) हर्षित करो और सूर्य्य के (द्यावः) किरणों के (न) समान (यस्य) जिस को (भुजे) भोग के लिये (मानुषा) मनुष्यों के हित करनेवाले गुण (विचरन्ति) विचरते हैं, उस (वस्वः) धन के देनेवाले (विप्रम्) विद्वान् का (अभ्यर्चत) सदा सत्कार करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को योग्य है कि जो बहुत गुणों के योग से सूर्य्य के सदृश विद्यायुक्त राजा हो, उसी का सत्कार सदा किया करें ॥ १ ॥
विषय
वसु का अर्णव
पदार्थ
१. (मेषम्) = [मेषति - sprinkles] सुखों का सेचन करनेवाले, (पुरुहूतम्) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी (ऋग्मियमम्) = [ऋग्भिर्मीयते] विज्ञानों के द्वारा जिसकी महिमा का ज्ञान होता है, (त्यम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों से (अभिमदत) = प्रातः सायं हर्षित करो । 'अभि' का शब्दार्थ दोनों ओर है । दिन का एक सिरा 'प्रातः' है और दूसरा 'सायम्' । हमें चाहिए कि हम प्रातः - सायं दोनों समय ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करते हुए प्रभु को प्रीणित करनेवाले बनें । वे प्रभु हमपर सुखों का सेचन करते हैं । हम जब भी प्रभु को पुकारते हैं तब वह पुकार हमारा पालन व पुरण करनेवाली होती है । इस प्रभ की महिमा का दर्शन हम तभी करते हैं जब हम विविध विज्ञानों का अध्ययन करते हैं । ये प्रभु परमैश्वर्यशाली हैं । २. ये प्रभु (वस्वः अर्णवम्) = निवास के लिए सब आवश्यक धनों के समुद्र हैं । हम उस प्रभु का प्रीणन करें (यस्य) = जिस प्रभु के (मानुषा) = मानव - हितकारी कर्म (विचरन्ति) = सर्वत्र उसी प्रकार फैले हुए हैं (न द्यावः) = जैसेकि सूर्य की किरणें सर्वत्र फैली हैं । ३. हमें चाहिए कि (भुजे) = [भुज पालने] अपने रक्षण के लिए (मंहिष्ठम्) = दातृतमम् - सब पदार्थों के सर्वोत्तम दाता (विप्रम्) = विशेष रूप से हमारा पूरण करनेवाले उस प्रभु का (अभि अर्चत) = प्रातः - सायं अर्चन करें । वस्तुतः उस प्रभु का उपासन ही हमें वह शक्ति प्राप्त कराता है, जो शक्ति हमारा पालन व पूरण करनेवाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रातः - सायं प्रभु का उपासन जीवन की कल्याणमयता व पूर्णता के लिए आवश्यक है ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य, अग्नी व विद्युत इत्यादी पदार्थांचे वर्णन, बल इत्यादीची प्राप्ती, अनेक अलंकार योजून विविध अर्थांचे वर्णन व सभाध्यक्ष आणि परमेश्वराच्या गुणांचे प्रतिपादन केलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो सूर्याप्रमाणे अनेक गुणांनी युक्त व विद्येने युक्त राजा असेल तर त्याचाच माणसांनी सत्कार करावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Worship Indra, lord of power and glory, destroyer of enemies. Celebrate and exhilarate Him who is generous and virile, universally invoked and honoured, master of the Rks, wielder of wealth, deep as ocean, greatest of the great, and lord of knowledge and wisdom. People roam around Him, approach and meditate on His presence for a vision and experience of the presence as the rays of the sun do homage to their source and master.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Sri Mohit
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal