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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 10
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒पाम॑तिष्ठद्ध॒रुण॑ह्वरं॒ तमो॒ऽन्तर्वृ॒त्रस्य॑ ज॒ठरे॑षु॒ पर्व॑तः। अ॒भीमिन्द्रो॑ न॒द्यो॑ व॒व्रिणा॑ हि॒ता विश्वा॑ अनु॒ष्ठाः प्र॑व॒णेषु॑ जिघ्नते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । ध॒रुण॑ऽह्वरम् । तमः । अ॒न्तः । वृ॒त्रस्य॑ । ज॒ठरे॑षु । पर्व॑तः । अ॒भि । ई॒म् । इन्द्रः॑ । न॒द्यः॑ । व॒व्रिणा॑ । हि॒ताः । विश्वाः॑ । अ॒नु॒ऽस्थाः । प्र॒व॒णेषु॑ । जि॒घ्न॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामतिष्ठद्धरुणह्वरं तमोऽन्तर्वृत्रस्य जठरेषु पर्वतः। अभीमिन्द्रो नद्यो वव्रिणा हिता विश्वा अनुष्ठाः प्रवणेषु जिघ्नते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। अतिष्ठत्। धरुणऽह्वरम्। तमः। अन्तः। वृत्रस्य। जठरेषु। पर्वतः। अभि। ईम्। इन्द्रः। नद्यः। वव्रिणा। हिताः। विश्वाः। अनुऽस्थाः। प्रवणेषु। जिघ्नते ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स सूर्य इव किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभेशेन्द्रस्त्वं यथा सूर्य्यो वृत्रस्यापामन्तर्जठरेषु स्थितं धरुणह्वरं तमोऽतिष्ठत् तन्निवार्य्य वव्रिणा सह वर्त्तमानो यः पर्वतो मेघ ईमभिपातयति येन प्रवणेष्वनुष्ठा विश्वा हिता नद्यो जिघ्नते तथा भव ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (अपाम्) जलानाम् (अतिष्ठत्) तिष्ठति (धरुणह्वरम्) धरुणानि धारकाणि ह्वराणि कुटिलानि यस्मिंस्तत् (तमः) अन्धकारम् (अन्तः) मध्ये (वृत्रस्य) मेघस्य (जठरेषु) जायन्ते वृष्टयो येभ्यस्तेषु। अत्र जनेररष्ठ च। (उणा०५.३८) इत्यरः प्रत्ययष्ठकारादेशश्च। (पर्वतः) पर्वताकारो घनसमूहवान् मेघः (अभि) आभिमुख्ये (ईम्) जलम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यदाता (नद्यः) सरितः (वव्रिणा) रूपेण (हिताः) हिन्वन्ति गच्छन्ति यास्ताः (विश्वाः) सर्वाः (अनुष्ठाः) या अनुतिष्ठन्ति (प्रवणेषु) निम्नमार्गेषु (जिघ्नते) गच्छन्ति अत्र बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः व्यत्ययेन आत्मनेपदं च ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो यज्जलमाकृष्यान्तरिक्षं नयति तद्वायुर्धरति यदैतन्मिलित्वा पर्वताकारं भूत्वा सूर्य्यप्रकाशमावृणोति तद्विद्युच्छित्वा भूमौ निपातयति तदुद्भूता नानारूपा अधोगामिन्यो नद्यः प्रचलन्त्यः सत्यः पृथिवीपर्वतवृक्षादीन् छित्वा भित्वा च पुनस्तज्जलं सागरमन्तरिक्षं च प्राप्यैवं पुनः पुनर्वर्षति तथा राजाद्यध्यक्षा भवेयुरिति ॥ १० ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब वह सूर्य्य के समान क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे सभेश ! (इन्द्रः) परमैश्वर्य देनेहारे आप जैसे सूर्य्य (वृत्रस्य) मेघसम्बन्धी (अपाम्) जलों के (अन्तः) मध्यस्थ (जठरेषु) जहाँ से वर्षा होती है, उनमें (धरुणह्वरम्) धारण करनेवाला कुटिल कर्मों का हेतु (तमः) अन्धकार (अतिष्ठत्) स्थित है, उसका निवारण कर (वव्रिणा) रूप के साथ वर्त्तमान जो (पर्वतः) पक्षीवत् आकाश में उड़नेहारा मेघ (ईम्) जल को (अभि) सन्मुख गिराता है, जिससे (प्रवणेषु) नीचे स्थानों में (अनुष्ठाः) अनुकूलता से बहने हारी (विश्वा) सब (हिताः) प्रतिक्षण चलनेवाली (नद्यः) नदियाँ (जिघ्नते) समुद्रपर्यन्त चली जाती हैं, वैसे आप हूजिये ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य जिस जल को आकर्षण कर अन्तरिक्ष में पहुँचाता और उसको वायु धारण करता है, जब वह जल मिल तथा पर्वताकार होकर सूर्य के प्रकाश का आवरण करता है, उसको बिजुली छेदन करके भूमि में गिरा देती है, उससे उत्पन्न हुई नानारूपयुक्त नीचे चलनेवाली चलती हुई नदियाँ पृथिवी, पर्वत और वृक्षादिकों को छिन्न-भिन्न कर फिर वह जल समुद्र वा अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर वार-वार इसी प्रकार वर्षता है, वैसे सभाध्यक्षादिकों को होना चाहिये ॥ १० ॥

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    विषय

    रूपसम्पन्न , पर विनीत

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब मन को धन के दान की वृत्तिवाला बनाते हैं तब लोभ के नष्ट होने से (अपाम्) = प्रजाओं का (धरुणह्वरम्) = [धरुण - प्रजापति] [ह्वृ - to deceive] प्रभु से वञ्चित करनेवाला (तमः) = अन्धकार (अतिष्ठत्) = रुक जाता है [to stop, to cease] | जब तक मनुष्य लोभोपहतचित्तवाला होता है तब तक वह अपने सम्भाव्य कर्तव्य को भी ठीक से नहीं देख पाता, प्रभुदर्शन का तो उस समय प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । मन दान की वृत्तिवाला बना तो लोभ नष्ट हो जाता है और हमें प्रभु - दर्शन से वञ्चित करनेवाला अज्ञान का आवरण भी दूर हो जाता है । प्रभु - दर्शन से वञ्चित करनेवाला अज्ञान अन्धकार अब नहीं रह जाता । २. यह पञ्च पर्वोंवाली अविद्या का (पर्वतः) = अज्ञान - पर्वत (वृत्रस्य) = काम के (जठरेषु अन्तः) = उदरों में ही तो रहता है । 'काम' गया, तो अविद्या अब रहे कहाँ ? ३. अविद्या नष्ट होते ही (ईम्) = अब निश्चय से (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (अभि) = इस व्यक्ति की ओर आता है अर्थात् इसे प्रभु का दर्शन होता है । ४. (नद्यः) = [नदनात्] ये प्रभु का स्तवन करनेवाले लोग (वव्रिणा) = तेजस्विता से (हिताः) = धारण किये जाते हैं । इनका रूप तेजस्वी होता है । प्रभुदर्शन करनेवाला निस्तेज हो ही नहीं सकता । ५. ये (विश्वाः अनुष्ठाः) = सब स्तोता शास्त्रानुकूल मार्ग में स्थित होनेवाले होते हैं । इनका जीवन शास्त्र - मर्यादा के अनुकूल होता है । ये शास्त्रविधि को छोड़कर कर्मों में व्याप्त नहीं होते । ६. (प्रवणेषु जिघ्नते) = ये सदा निम्न मागों से, अर्थात् नम्रतावाले मार्गों से गति करते हैं । इनके जीवन में अभिमान नहीं होता । यही तो दैवी - सम्पत्ति की पराकाष्ठा है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दानवृत्ति से अज्ञान का तम दूर होता है, हम प्रभु के प्रिय बनते हैं, उत्तम रूपवाले होते हुए शास्त्रानुकूल अनुष्ठानवाले बनकर नम्रता के मार्ग से आगे बढ़ते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य जलाला आकर्षित करून अंतरिक्षात पोचवितो व त्याला वायू धारण करतो. जेव्हा जल एकत्रित होऊन पर्वताच्या आकाराचे बनते व सूर्याच्या प्रकाशाला आवरण घालते त्याला विद्युत छेदन करून भूमीवर पाडते. अनेक रूपे धारण करून खाली वाहणाऱ्या नद्या, पृथ्वी, पर्वत व वृक्ष इत्यादींना छिन्नभिन्न करून पुन्हा ते जल समुद्र, अंतरिक्षात जाते व वारंवार वृष्टी होते तसे सभाध्यक्ष इत्यादींनी राहिले पाहिजे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The darkest dark mountainous body of vapours stays enclosed in the depths of Vritra, the dense cloud. Indra, lord of light and lightning energy, releases the waters in the form of all the streams earlier withheld by Vritra and makes them flow in their usual course.

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