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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 59/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र नू म॑हि॒त्वं वृ॑ष॒भस्य॑ वोचं॒ यं पू॒रवो॑ वृत्र॒हणं॒ सच॑न्ते। वै॒श्वा॒न॒रो दस्यु॑म॒ग्निर्ज॑घ॒न्वाँ अधू॑नो॒त्काष्ठा॒ अव॒ शम्ब॑रं भेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । नु । म॒हि॒ऽत्वम् । वृ॒ष॒भस्य॑ । वो॒च॒म् । यम् । पू॒रवः॑ । वृ॒त्र॒ऽहन॑म् । सच॑न्ते । वै॒श्वा॒न॒रः । दस्यु॑म् । अ॒ग्निः । ज॒घ॒न्वान् । अधू॑नोत् । काष्ठाः॑ । अव॑ । शम्ब॑रम् । भे॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र नू महित्वं वृषभस्य वोचं यं पूरवो वृत्रहणं सचन्ते। वैश्वानरो दस्युमग्निर्जघन्वाँ अधूनोत्काष्ठा अव शम्बरं भेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। नु। महिऽत्वम्। वृषभस्य। वोचम्। यम्। पूरवः। वृत्रऽहनम्। सचन्ते। वैश्वानरः। दस्युम्। अग्निः। जघन्वान्। अधूनोत्। काष्ठाः। अव। शम्बरम्। भेत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 59; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यं परमेश्वरं पूरवः सचन्तेऽग्निर्वृत्रहणं सवितारमिव सर्वान् पदार्थान् दर्शयति यथा वैश्वानरो दस्युं शम्बरं जघन्वानधूनोदवभेत् यस्य मध्ये काष्ठाः सन्ति, तस्य वृषभस्य महित्वमहं नु प्रवोचं तथा सर्वे विद्वांसः कुर्युः ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (नु) शीघ्रम् (महित्वम्) महत्त्वम् (वृषभस्य) सर्वोत्कृष्टस्य (वोचम्) कथयेयम् (यम्) वक्ष्यमाणम् (पूरवः) मनुष्याः। पूरव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (वृत्रहणम्) यो वृत्रं मेघं शत्रुं वा हन्ति तम् (सचन्ते) समवयन्ति (वैश्वानरः) सर्वनियन्ता (दस्युम्) दुष्टस्वभावयुक्तम् (अग्निः) स्वयंप्रकाशः (जघन्वान्) हतवान् (अधूनोत्) कम्पयति (काष्ठाः) दिशस्तत्रस्थाः प्रजाः (अव) विनिग्रहे (शम्बरम्) मेघम्। शम्बरमिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (भेत्) भिन्द्यात् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्यायं सर्वः संसारो महिमास्ति स एवानन्तशक्तिमान् परमेश्वरः सर्वैरुपास्यो मन्तव्यः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (तम्) जिस परमेश्वर को (पूरवः) विद्वान् लोग अपने आत्मा के साथ (सचन्ते) युक्त करते हैं, जैसे (अग्निः) सर्वत्र व्यापक विद्युत् (वृत्रहणम्) मेघ के नाशकर्त्ता सूर्य को दिखलाती है, जैसे (वैश्वानरः) सम्पूर्ण प्रजा को नियम में रखनेवाला सूर्य्य (दस्युम्) डाकू के तुल्य (शम्बरम्) मेघ को (जघन्वान्) हनन (अधूनोत्) कँपाता (अवभेत्) विदीर्ण करता है, जिस के बीच में (काष्ठाः) दिशा भी व्याप्य है, उस (वृषभस्य) सब से उत्तम सूर्य के (महित्वम्) महिमा को मैं (नु) शीघ्र (प्रवोचम्) प्रकाशित करूँ, वैसे सब विद्वान् लोग किया करें ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस की महिमा को सब संसार प्रकाशित करता है, वही अनन्त शक्तिमान् परमेश्वर सबको उपासना के योग्य है ॥ ६ ॥

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    विषय

    शम्बर विदारण

    पदार्थ

    १. (नु) = अब (वृषभस्य) = सब सुखों की वर्षा करनेवाले शक्तिशाली प्रभु की (महित्वम्) = महिमा को (प्रवोचम्) = प्रकर्षेण कहता हूँ - (वृत्रहणम्) = वासनाओं के नष्ट करनेवाले (यम्) = जिस परमात्मा को (पूरवः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले लोग (सचन्ते) = सेवन करते हैं । प्रभु का सच्चा भक्त वही है जो शरीर को रोगों से रक्षित करने के लिए यत्नशील होता है और काम - क्रोध से आ जानेवाली न्यूनताओं को दूर करने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार का यत्न करनेवाले लोग ही 'पूरवः' कहलाते हैं । ये प्रभु का उपासन करते हैं, प्रभु इनकी वासनाओं को विनष्ट करते हैं । इन वासनाओं से ही ज्ञान का प्रकाश आवृत हो रहा था । वासना के नष्ट होते ही चारों ओर ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है । २. वह (वैश्वानरः अग्निः) = सब नरों का हितकारी अग्नि (दस्युम्) = शरीर का नाश कर डालनेवाली कामवृत्ति को (जघन्वान्) = मार देते हैं । महादेव के तृतीय नेत्र की ज्योति से काम जल जाता है । कामध्वंस से इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती । ३. ये प्रभु (काष्ठा) = [Extremeties] सिरों को (अधूनोत्) = कम्पित करके हमसे दूर करते हैं । हम अति में न जाकर सदा मध्यमार्ग में चलनेवाले बनते हैं । काष्ठा में जाना ही लोभ करना है, प्रभु हमें लोभ से बचाते हैं । लोभ बुद्धि को नष्ट करता है, लोभ के नाश से हमारी बुद्धि स्थिर होती है । ४. प्रभु (शम्बरम्) = शान्ति को ढक लेनेवाले 'ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध' को भी (अवभेत्) = सुदूर विदीर्ण करते हैं । ईष्या - द्वेषादि के नष्ट होने पर ही मानस शान्ति उपलब्ध होती है । ईर्ष्यालु का मन मृतप्राय ही होता है, यह किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर पाता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे काम - लोभ व क्रोध को नष्ट कर देते हैं । इससे हमारा शरीर, हमारी बुद्धि व हमारा मन सुस्थिर व दृढ होता जाता है । शरीर दृढ़, मस्तिष्क उज्वल व मन पवित्र बन जाता है ।

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    विषय

    अग्नि, वैश्वानर नाम से अग्नि विद्युत् या सूर्य के दृष्टान्त से अग्रणी नायक, सेनापति और राजा के कर्तव्यों और परमेश्वर की महिमा का वर्णन ।

    भावार्थ

    परमेश्वर के पक्ष में—( यं ) जिस (वृत्रहणम्) विघ्नकारी, बाधक शत्रु के नाश करनेहारे परमेश्वर का ( पूरवः ) समस्त मनुष्य ( सचन्ते ) आश्रय लेते हैं । उस ( वृषभस्य ) जलों के वर्षक, मेघ के समान सब सुखों के वर्षक और शकटवाही वृषभ के समान समस्त ब्रह्मांड के धारक परमेश्वर के ( महित्वम् ) बड़े भारी सामर्थ्य का ( नु ) निरन्तर ( प्र वोचम् ) मैं उपदेश करता हूं । (वैश्वानरः) समस्त विश्व का प्रणेता, सब मनुष्यों का हितकारी, (अग्निः) ज्ञानस्वरूप, सबका प्रकाशक प्रभु ( दस्युं ) प्रजापीड़कों का ( जघन्वान् ) नाश करे । ( शम्बरम्) जलों के प्रदान करने वाले मेघ को ( अव भेत् ) बिजुली के समान अज्ञान को नाश करता और (काष्ठाः अधूनोत् ) समस्त दिशाओं को कम्पा देता है । अथवा—(काष्ठाः) तेजस्वी, प्रकाशमान् सूर्यादि लोकों और समस्त प्राणियों को ( अधूनोत् ) संचालित करता है । ( २ ) अध्यात्म में—( पूरवः ) इन्द्रियगण ( वैश्वानरः अग्निः ) समस्त प्राणियों में रहनेवाला आत्मा ( शम्बरम् ) अन्तःकरण के ढकने वाले अज्ञान को । ( काष्ठाः ) प्राणों को । ( ३ ) राजा के पक्ष में—( यं पूरवः वृत्रहणम् ज्ञात्वा सचन्ते ) जिस पुरुष के नायक को शत्रुहन्ता जानकर मनुष्य प्रजाएं आश्रय कर लेती हैं। उस नरश्रेष्ठ के गुणों का मैं उपदेश करता हूं। वह सर्व लोक-हितकारी ( अग्निः ) अग्रणी होकर (दस्युं जघन्वान्) प्रजा के नाश करने वाले दुष्ट पुरुषों को दण्डित करे। ( शम्बरम् अव भेत् ) प्रजा को घेरनेवाले शत्रु को छिन्न-भिन्न करे । ( काष्ठा अधूनोत् ) दिशाओं के वासियों को भी प्रभाव से कम्पाता रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-७ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५-७ त्रिष्टुप् । ३ पंक्तिः ।

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    विषय

    फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यं परमेश्वरं पूरवः सचन्ते अग्निः वृत्रहणं सवितारम् इव सर्वान् पदार्थान् दर्शयति यथा वैश्वानरः दस्युं शम्बरं जघन्वान् अधूनोत् अवभेत् यस्य मध्ये काष्ठाः सन्ति, तस्य वृषभस्य महित्वम् अहं नु प्र वोचं तथा सर्वे विद्वांसः कुर्युः ॥६॥

    पदार्थ

    (यम्) वक्ष्यमाणम्=कहे गये, (परमेश्वरम्)= परमेश्वर का, (पूरवः) मनुष्याः= मनुष्य, (सचन्ते) समवयन्ति=आश्रय लेते हैं, (अग्निः) स्वयंप्रकाशः= स्वयं प्रकाशित, (वृत्रहणम्) यो वृत्रं मेघं शत्रुं वा हन्ति तम्=बादल को छिन्न-भिन्न करनेवाले, (सवितारम्)=सूर्य के, (इव)=समान, (सर्वान्) =समस्त, (पदार्थान्)=पदार्थों को, (दर्शयति)=दिखाता है, (यथा)=जैसे, (वैश्वानरः) सर्वनियन्ता=सबका नियन्ता, (दस्युम्) दुष्टस्वभावयुक्तम्= दुष्ट स्वभाव वाले, (शम्बरम्) मेघम्=बादल को, (जघन्वान्) हतवान्= छिन्न-भिन्न करके, (अधूनोत्) कम्पयति=कम्पा देता है, (अव) विनिग्रहे=वश में करते हुए, (भेत्) भिन्द्यात्= छिन्न-भिन्न करता है, (यस्य)=जिसके, (मध्ये) =बीच में, (काष्ठाः) दिशस्तत्रस्थाः प्रजाः =दिशाओं में स्थित सन्तानें, (सन्ति)=हैं, (तस्य)= उसके, (वृषभस्य) सर्वोत्कृष्टस्य=सर्वोत्कृष्ट, (महित्वम्) महत्त्वम्=महत्त्व को, (अहम्)=मैं, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (वोचम्) कथयेयम्=कहता हूँ। (तथा)=वैसे ही, (सर्वे)= समस्त, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (कुर्युः)=किया करें ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस की महिमा सारे संसार में है, वही अनन्त शक्तिमान् परमेश्वर सबके द्वारा उपासना के योग्य माने जाना चाहिए है ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यम्) कहे गये (परमेश्वरम्) परमेश्वर का, (पूरवः) मनुष्य (सचन्ते) आश्रय लेते हैं। (अग्निः) स्वयं प्रकाशित (वृत्रहणम्) बादल को छिन्न-भिन्न करनेवाले (सवितारम्) सूर्य के (इव) समान (सर्वान्) समस्त (पदार्थान्) पदार्थों को (दर्शयति) दिखाता है। (यथा) जैसे (वैश्वानरः) सबका नियन्ता (दस्युम्) दुष्ट स्वभाव वाले (शम्बरम्) बादल को (जघन्वान्) छिन्न-भिन्न करके (अधूनोत्) कम्पा देता है और (अव) वश में करते हुए (भेत्) छिन्न-भिन्न करता है। (यस्य) जिसके (मध्ये) बीच में की (काष्ठाः) दिशाओं में स्थित सन्तानें (सन्ति) हैं, (तस्य) उनके (वृषभस्य) सर्वोत्कृष्ट (महित्वम्) महत्त्व को, (अहम्) मैं (नु) शीघ्र (प्र) प्रकृष्ट रूप से (वोचम्) कहता हूँ। (तथा) वैसे ही (सर्वे) समस्त (विद्वांसः) विद्वान् लोग (कुर्युः) किया करें, अर्थात् कहें ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (नु) शीघ्रम् (महित्वम्) महत्त्वम् (वृषभस्य) सर्वोत्कृष्टस्य (वोचम्) कथयेयम् (यम्) वक्ष्यमाणम् (पूरवः) मनुष्याः। पूरव इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (वृत्रहणम्) यो वृत्रं मेघं शत्रुं वा हन्ति तम् (सचन्ते) समवयन्ति (वैश्वानरः) सर्वनियन्ता (दस्युम्) दुष्टस्वभावयुक्तम् (अग्निः) स्वयंप्रकाशः (जघन्वान्) हतवान् (अधूनोत्) कम्पयति (काष्ठाः) दिशस्तत्रस्थाः प्रजाः (अव) विनिग्रहे (शम्बरम्) मेघम्। शम्बरमिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (भेत्) भिन्द्यात्॥६॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यं परमेश्वरं पूरवः सचन्तेऽग्निर्वृत्रहणं सवितारमिव सर्वान् पदार्थान् दर्शयति यथा वैश्वानरो दस्युं शम्बरं जघन्वानधूनोदवभेत् यस्य मध्ये काष्ठाः सन्ति, तस्य वृषभस्य महित्वमहं नु प्रवोचं तथा सर्वे विद्वांसः कुर्युः ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्यायं सर्वः संसारो महिमास्ति स एवानन्तशक्तिमान् परमेश्वरः सर्वैरुपास्यो मन्तव्यः ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याच्या महिमेचे सर्व जग वर्णन करते तोच अनंत शक्तिमान परमेश्वर सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Spontaneously I celebrate the greatness and grandeur of the mighty and generous Vaishvanara Agni, Lord Omnipotent and Omnipresent, whom all people of the world seek and worship. Lord of light, breaker of the cloud, dispeller of darkness and destroyer of the wicked, He shakes the quarters of space and terrifies the demons of evil.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of God is He, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yam) = It is said, (parameśvaram) =of God, (pūravaḥ) =human, (sacante) =take shelter, (agniḥ) =self illuminated, (vṛtrahaṇam) =shattering the cloud, (savitāram) =of the sun, (iva) =like, (sarvān) =all, (padārthān) =to the substances, (darśayati) =shows, (yathā)=like, (vaiśvānaraḥ) =controller of all, (dasyum)= evil natured, (śambaram) =to the cloud, (jaghanvān) =by shattering, (adhūnot)=gives shivers and, (ava)=having under control, (bhet) =shatters, (yasya) =whose, (madhye) =of middle, (kāṣṭhāḥ)=children located in directions, (santi) =are, (tasya) =their, (vṛṣabhasya)=par excellence, (mahitvam) =to importance, (aham) =I, (nu) =soon, (pra)=eminently, (vocam) =I say, (tathā) =in the same way, (sarve) =all, (vidvāṃsaḥ) =scholars,

    English Translation (K.K.V.)

    It is said that humans take refuge in God. It shows all things like a self-illuminated Sun that disintegrates the clouds. Just as the controller of everything breaks the evil natured cloud and makes it tremble and while controlling it, it breaks it to pieces. I will quickly state in detail the supreme importance of the one who has children located in the directions in between. All learned people should do the same, that is, they must say.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as figurative in this mantra. The infinite powerful God, whose glory is spread throughout the world, should be considered worthy of worship by all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni (God) is taught further in the 6th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    In the case of God I extol the greatness of that showerer of peace and happiness, the Best of all whom all good men worship and unite themselves with. He the controller of all, the Self-effulgent, destroys wicked persons as the sun smites down the cloud. He makes tremble all people in all directions as the controller of the whole universe.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पूरव:) मनुष्या: पूरव इति मनुष्यनाम ( निघ० २.३ ) = Men. (काष्ठा:) दिश: तत्रस्था: प्रजा: = People on all directions.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God alone should be adored by all persons whose great glory is manifested by this whole world.

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